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________________ कहा है कि उन्हींके व्याख्यानको ग्रहण करना चाहिए, परिकर्मके व्याख्यानको नहीं, क्योंकि, यह व्याख्यान सूत्रके विरुद्ध जाता है । इससे स्पष्ट ही ज्ञात होता है कि 'परिकर्म' इसी षट्खण्डागमकी टीका थी । इसकी पुष्टि एक और उल्लेखसे होती है जहां ऐसा ही विरोध उत्पन्न होनेपर कहा है कि यह कथन उसप्रकार नहीं है, क्योंकि, स्वयं ‘परिकर्मकी' प्रवृत्ति इसी सूत्रके बलसे हुई है । इन उल्लेखोंसे इस बातमें कोई सन्देह नहीं रहता कि 'परिकर्म' नामका ग्रंथ था, उसमें इसी आगम का व्याख्यान था और वह ग्रंथ वीरसेनाचार्यके सन्मुख विद्यमान था। एक उल्लेख द्वारा धवलाकारने यह भी स्पष्ट कर दिया है कि 'परिकर्म' ग्रंथको सभी आचार्य प्रमाण मानते थे । उक्त उल्लेखोंमेंसे प्रायः सभीका सम्बन्ध षट्खण्डगमके प्रथम तीन खण्डोंके विषयसे ही है जिससे इन्द्रनन्दिके इस कथन की पुष्टि होती है कि वह ग्रंथ प्रथम तीन खण्डोंपर ही लिखा गया था । उक्त उल्लेखोंपरसे 'परिकर्मके' कर्ताके नामादिकका कुछ पता नहीं लगता । किंतु ऐसी भी कोई बात उनमें नहीं है कि जिससे वह ग्रंथ कुन्दकुन्दकृत न कहा जा सके । धवलाकारने कुन्दकुन्दके अन्य सुविख्यात ग्रंथोंका भी कर्ताका नाम दिये बिना ही उल्लेख किया है। यथा, वुत्तं च पंचत्थिपाहुडे (धवला. अ. पृ. २८९) इन्दनन्दिने जो इस टीकाको सर्व प्रथम बतलाया है और धवलाकारने उसे सर्वआचार्य-सम्मत कहा है, तथा उसका स्थान स्थानपर उल्लेख किया है, इससे इस ग्रंथके कुन्दकुन्दाचार्यकृत माननेमें कोई आपत्ति नहीं दिखती । यद्यपि इन्द्रनन्दिने यह नहीं कहा है कि यह ग्रंथ किस भाषामें लिखा गया था, किंतु उसके जो ' अवतरण' धवलामें आये हैं वे सब प्राकृतमें ही हैं, जिससे जान पड़ता है कि वह टीका प्राकृतमें ही लिखी गई होगी । कुन्दकुन्दके अन्य सब ग्रंथ भी प्राकृतमें ही हैं। धवलामें परिकर्मका एक उल्लेख इसप्रकार से आया है" 'अपदेसं णेव इंदिए गेझं' इदि परमाणूणं णिरवयवत्तं परियम्मे वुत्तमिदि” (ध, १११०) १परियम्मेण एवं वक्खाणं किण्ण विरुज्झदे ? एदेण सह विरुज्झदे, किंतु सुत्तेण सह ण विरुज्झदे। तेण एदस्स वक्खाणस्स गहणं कायव्वं, ण परियम्मस्त तस्स मुत्तविरुज्झत्तादो। (धवला अ. २५९) २ परियम्मादो असंखेज्जाओ जोयणकोडीओ सेढीए पमाणमवगदमिदि चे ण, एदस्स मुत्तस्स बलेण परियम्मपवुत्तीदो।' (धवला अ. पृ. १८६) ३ सयलाइरियसम्मदपरियम्मसिद्धत्तादो। (धवला अ. पृ. ५४२) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001395
Book TitleShatkhandagama Pustak 01
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1939
Total Pages560
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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