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________________ . (४६) ८. धवलासे पूर्वके टीकाकार ऊपर कह आये हैं कि जयधवलाकी प्रशस्तिके अनुसार वीरसेनाचार्यने अपनी टीकाद्वारा सिद्धान्त ग्रन्थोंकी बहुत पुष्टि की, जिससे वे अपनेसे पूर्वके समस्त पुस्तकशिष्यकोंसे बढ़ गये। इससे प्रश्न उत्पन्न होता है कि क्या वीरसेनसे भी पूर्व इस सिद्धान्त ग्रन्थकी अन्य टीकाएं लिखी गईं थीं ? ' इन्द्रनन्दिने अपने श्रुतावतारमें दोनों सिद्धान्त ग्रन्थोंपर लिखी गईं अनेक टीकाओंका उल्लेख किया है जिसके आधारसे षदखण्डागमकी धवलासे पूर्व रची गई टीकाओंका यहां परिचय दिया जाता है। कर्मप्राभृत (षट्खण्डागम ) और कषायप्राभृत इन दोनों सिद्धान्तोंका ज्ञान गुरुपरिकर्म और परिपाटीसे कुन्दकुन्दपुरके पद्मनन्दि मुनिको प्राप्त हुआ, और उन्होंने सबसे .. पहले पटखण्डागमके प्रथम तीन खण्डोंपर बारह हजार श्लोक प्रमाण एक टीका उसके रचयिता " ग्रन्थ रचा जिसका नाम परिकर्म था'। हम ऊपर बतला आये हैं कि इद्रनन्दिका कुन्दकुन्द कुन्दकुन्दपुरके पद्मनन्दिसे हमारे उन्हीं प्रातःस्मरणीय कुन्दकुन्दाचायेका ही अभिप्राय हो सकता है जो दिगम्बर जैन संप्रदायमें सबसे बड़े आचार्य गिने गये हैं और जिनके प्रवचनसार, समयसार आदि ग्रंथ जैन सिद्धान्तके सर्वोपरि प्रमाण माने जाते हैं । दुर्भाग्यतः उनकी बनायी यह टीका प्राप्य नहीं है और न किन्हीं अन्य लेखकोंने उसके कोई उल्लेखादि दिये । किंतु स्वयं धवला टीकामें परिकर्म नामके ग्रन्थका अनेकबार उल्लेख आया है । धवलाकारने कहीं 'परिकर्म' से उद्धृत किया है, कहीं कहा है कि यह बात ‘परिकर्म' के कथनपरसे जानी जाती है और कहीं अपने कथनका परिकर्मके कथनसे विरोध आनेकी शंका उठाकर उसका समाधान किया है । एक स्थानपर उन्होंने परिकर्मके कथनके विरुद्ध अपने कथनकी पुष्टि भी की है और , पुस्तकानां चिरनाना गुरुत्वमिह कुर्वता । येनातिशयिताः पूर्वे सर्वे पुस्तकशिष्यकाः ॥ २४ ॥ (जयधवलाप्रशस्ति ) २ एवं द्विविधो द्रव्यभावपुस्तकगतः समागच्छन् । गुरुपरिपाट्या ज्ञातः सिद्धान्तः कुण्डकुन्दपुरे ॥१६० ।। श्रीपद्मनन्दिमुनिना सोऽपि द्वादशसहस्रपरिमाणः । ग्रन्थपरिकर्मका पट्खण्डायत्रिखण्डस्य ॥१६॥ इन्द्रः श्रुतावतार. ३ ‘ति परियम्मे वुत्तं' ( धवला अ. १४१) ५ ण च परियम्मेण सह विरोहो (धवला. अ. २०३) परियम्मम्मि वुत्तं' (, , ६७८) परियम्मवयणेण सह एवं सुतं ४ परियम्मवयणादो णव्वदे' , , १६७) विरुज्झदि त्ति ण (, , ३०४) 'इदि परियम्मवयणादो' (, , २०३) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001395
Book TitleShatkhandagama Pustak 01
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1939
Total Pages560
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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