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________________ (४५) अब हम उन तीन पद्योंको शुद्धतासे इसप्रकार पढ़ सकते हैं--- अठतीसम्हि सतसए विकमरायंकिए सु-सगणामे । वासे सुतेरसीए भाणु-विलग्गे धवल-पक्खे ॥ ६ ॥ जगतुंगदेव-रज्जे रियम्हि कुंभम्हि राहुणा कोणे । सूरे तुलाए संते गुरुम्हि कुलविल्लए होते ॥ ७ ॥ चावम्हि तरणि-वुत्ते सिंघे सुक्कम्मि मीणे चंदम्मि । कत्तिय-मासे एसा टीका हु समाणिआ धवला ॥ ८ ॥ इस पर से धवला की जन्मकुंडली निम्नप्रकारसे खींची जा सकती है... १२ च. वीरसेन स्वामीने अपनी टीकाका नाम धवला क्यों रक्वा यह कहीं बतलाया गया दृष्टिगोचर नहीं हुआ। धबलका शब्दार्थ शुक्लके अतिरिक्त शुद्ध, विशद, स्पष्ट धवला नामकी " भी होता है । संभव है अपनी टीकाके इसी प्रसाद गुणको व्यक्त करनेके लिये साथकता उन्होंने यह नाम चुना हो । ऊपर दी हुई प्रशस्तिसे ज्ञात है कि यह टीका कार्तिक मासके धवल पक्षकी त्रयोदशीको समाप्त हुई थी। अतएव संभव है इसी निमित्तसे रचयिताको यह नाम उपयुक्त जान पड़ा हो । ऊपर बतला चुके हैं कि यह टीका वदिग उपनामधारी अमोघवर्ष (प्रथम ) के राज्यके प्रारंभकालमें समाप्त हुई थी । अमोघवर्षकी अनेक उपाधियोंमें एक उपाधि ' अतिशय--धवल ' भी मिलती है। उनकी इस उपाधिकी सार्थकता या तो उनके शरीरके अत्यन्त गौरवर्णमें हो या उनकी अत्यन्त शुद्ध सात्त्विक प्रकृतिमें । अमोघवर्ष बड़े धार्मिक बुद्धिवाले थे। उन्होंने अपने वृद्धत्वकालमें राज्यपाट छोड़कर वैराग्य धारण किया था और प्रश्नोत्तररत्नमालिका' नामक सुन्दर काव्य लिखा था । बाल्यकालसे ही उनकी यह धार्मिक बुद्धि प्रकट हुई होगी। अतः संभव है उनकी यह ' अतिशय धवल ' उपाधि भी धवलाके नाम-करणमें एक निमित्तकारण हुआ हो । रेऊः भारतके प्राचीन राजवंश, ३, पृ. ४०. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001395
Book TitleShatkhandagama Pustak 01
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1939
Total Pages560
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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