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इन ग्रहोंका इन्ही राशियोंमें योग शक ७३८ के अतिरिक्त केवल शक ३७८, ५५८, ९१८, १०९८, १२७८, १४५८, १६३८ और १८१८ मेंही पाया जाता है, और ये कोईभी संवत् धवलाके रचनाकालके लिये उपयुक्त नही हो सकते ।
___अब ग्रहोंमेंसे केवल तीन अर्थात् केतु, मंगल और बुध ही ऐसे रह गये जिनका नामोल्लेख प्रशस्तिमें हमारे दृष्टिगोचर नही हुआ । केतुकी स्थिति सदैव राहुसे सप्तम राशिपर रहती है, अत: राहुकी स्थिति बता देने पर उसकी स्थिति आप ही स्पष्ट हो जाती है कि उस समय केतु सिंह राशिमें था । प्रशस्तिके शेष शब्दोंपर विचार करनेसे हमें मंगल और बुधका भी पता लग जाता है। प्रशस्तिमें ' कोणे' शब्द आया है । कोण शब्द कोषके अनुसार मंगलका भी पर्यायवाची है। जैसा आगे चलकर ज्ञात होगा, कुंडली-चक्रमें मंगलकी स्थिति कोने में आती है, इसीसे संभवतः मंगलका यह पर्याय कुशल कविको यहां उपयुक्त प्रतीत हुआ। अतः मंगलकी स्थिति राहुके साथ कुंभ राशि थी। राहु पदकी तृतीया विभक्ति इसी साथको व्यक्त करनेके लिये रखी गई जान पड़ती है । अब केवल ' भावविलग्गे' और ' कुलविल्लए' शब्द प्रशस्तिमें ऐसे बच रहे हैं जिनका अभीतक उपयोग नहीं हुआ । कुल का अर्थ कोषानुसार बुध भी होता है, और बुध सूर्यकी आजू बाजूकी राशियोंसे बाहर नहीं जा सकता। जान पड़ता है यहां कुलविल्लए का अर्थ 'कुलविलये' है । अर्थात् बुधकी सूर्यकी ही राशिमें स्थिति होनेसे उसका विलय था। गाथामें मात्रापूर्तिके लिये विलए का विल्लए कर दिया प्रतीत होता है।
जब तक लग्नका समय नहीं दिया जाता तब तक ज्योतिष कुंडली पूरी नहीं कही जा सकती । इस कमी की पूर्ति 'भावविलग्गे' पद से होती है । ' भावविलगगे' का कुछ ठीक अर्थ नही बैठता । पर यदि हम उसकी जगह ' भाणुविलग्गे ' पाठ ले लें तो उससे यह अर्थ निकलता है कि उस समय सूर्य लग्नकी राशिमें था, और क्योंकि सूर्यकी राशि अन्यत्र तुला बतला दी है, अतः ज्ञात हुआ कि धवला टीका को वीरसेन स्वामीने प्रातःकाल के समय पूरी की थी जब तुला राशिके साथ सूर्यदेव उदय हो रहे थे।
इस विवेचनद्वारा उक्त प्रशस्तिके समयसूचक पद्योंका पूरा संशोधन हो जाता है, और . उससे धवलाकी समाप्तिका काल निर्विवाद रूपसे शक ७३८ कार्तिक शुक्ल १३, तदनुसार तारीख ८ अक्टूबर सन् ८१६, दिन बुधवार का प्रातःकाल, सिद्ध हो जाता है। उससे श्रीरसेन स्वामीके सूक्ष्म ज्योतिष-ज्ञानका भी पता चल जाता है।
१ Apte : Sanskrit English Dictionary.
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