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________________ अब हम प्रशस्तिमें दी हुई ग्रह-स्थितिपर भी विचार कर सकते हैं। सूर्यकी स्थिति तुला राशिमें बताई गई है सो ठीक ही है, क्योंकि, कार्तिक मासमें सूर्य तुलामें ही रहता है। चन्द्रकी स्थितिका द्योतक पद अशुद्ध है। शुक्लपक्ष होनेसे चन्द्र सूर्यसे सात राशिके भीतर ही होना चाहिये और कार्तिक मासकी त्रयोदशीको चन्द्र मीन या मेष राशिमें ही हो सकता है। अतएव 'णोमिचंदम्मि' की जगह शुद्ध पाठ 'मीणे चंदम्मि' प्रतीत होता है जिससे चन्द्रकी स्थिति मीन राशिमें पड़ती है । लिपिकारके प्रमादसे लेखनमें वर्णव्यत्यय होगया जान पड़ता है। शुक्रकी स्थिति सिंह राशिमें बताई है जो तुलाके सूर्यके साथ ठीक बैठती है। संवत्सरके निर्णयमें नौ ग्रहोंमेंसे केवल तीन ही ग्रह अर्थात् गुरु, राहु और शनिकी स्थिति सहायक हो सकती है । इनमेंसे शनिका नाम तो प्रशस्तिमें कहीं दृष्टिगोचर नहीं होता। राहु और गुरुके नामोल्लेख स्पष्ट हैं किन्तु पाठ-भ्रमके कारण उनकी स्थितिका निर्धान्त ज्ञान नहीं होता। अतएव इन ग्रहोंकी वर्तमान स्थितिपरसे प्रशस्तिके उल्लेखोंका निर्णय करना आवश्यक प्रतीत हुआ । आज इसका विवेचन करते समय शक १८६१, आश्विन शुक्ला ५, मंगलवार, है और इस समय गुरु मीनमें, राहु तुलामें तथा शनि मेषमें है । गुरुकी एक परिक्रमा बारह वर्षमें होती है, अतः शक ७३८ से १८६१ अर्थात् ११२३ वर्षमें उसकी ९३ परिक्रमाएं पूरी हुई और शेष सात वर्षमें सात राशियां आगे बढ़ीं। इसप्रकार शक ७३८ में गुरुकी स्थिति कन्या या तुला राशिमें होना चाहिये । अब प्रशस्तिमें गुरुको हम सूर्यके साथ तुला राशिमें ले सकते हैं। राहुकी परिक्रमा अठारह वर्षमें पूरी होती है अतः गत ११२३ वर्षमें उसकी ६२ परिक्रमाएं पूरी हुई और शेष सात वर्षमें वह लगभग पांच राशि आगे बढ़ा। राहुकी गति सदैव वक्री होती है। तदनुसार शक ७३८ में राहुकी स्थिति तुलासे पांचवी राशि अर्थात् कुंभमें होना चाहिये । अतएव प्रशस्तिमें हम राहुका सम्बन्ध कुंभम्हि से लगा सकते हैं । राहु यहां तृतीयान्त पद क्यों है इसका समाधान आगे करेंगे । __ शनिकी परिक्रमा तीस वर्षमें पूरी होती है। तदनुसार गत ११२३ वर्षमें उसकी ३७ परिक्रमाएं पूरी हुई और शेष १३ वर्षमें वह कोई पांच राशि आगे बढ़ा । अतः शक ७३८ में शनि धनु राशिमें होना चाहिये । जब धवलाकारने इतने ग्रहोंकी स्थितियां दी हैं, तब वे शनि जैसे प्रमुख प्रहको भूल जाय यह संभव न जान हमारी दृष्टि प्रशस्तिके चापम्हि वरणिवुत्ते पाठपर गई । चाप का अर्थ तो धनु होता ही है, किन्तु वरणिवुत्ते से शनिका अर्थ नहीं निकल सका । पर साथ ही यह ध्यानमें आते देर न लगी कि संभवतः शुद्ध पाठ तरणि-वृत्ते ( तरणिपुत्रे ) है । तरणि सूर्यका पर्यायवाची है और शनि सूर्यपुत्र कहलाता है । इसप्रकार प्रशस्तिमें शनिका भी उल्लेख मिल गया और इन तीन ग्रहोंकी स्थितिसे हमारे अनुमान किए हुए धवलाके समाप्तिकाल शक संवत् ७३८ की पूरी पुष्टि हो गई । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001395
Book TitleShatkhandagama Pustak 01
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1939
Total Pages560
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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