SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 526
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १, १, १७१.] संत-परूवणाणुयोगद्दारे सम्मत्तमग्गणापरूवर्ण [४०७ त्रिविधेन सम्यक्त्वेन सह तत्रोत्पत्तेर्दर्शनात् । तत्रोत्पद्य द्विविधसम्यग्दर्शनोपादानात्तत्र तेषां सत्त्वं सुघटमिति । शेषदेवानां सम्यग्दर्शनभेदप्रतिपादनार्थमाह अणुदिस-अणुत्तर-विजय-वइजयंत-जयंतावराजिदसवट्टसिद्धिविमाण-वासिय-देवा असंजदसम्माइटि-ट्ठाणे अत्थि खइयसम्माइट्टी वेदगसम्माइट्ठी उवसमसम्माइट्ठी ॥ १७१ ॥ कथं तत्रोपशमसम्यक्त्वस्य सत्त्वमिति चेत्कथं च तत्र तस्यासत्त्वं ? तत्रोत्पन्नेभ्यः क्षायिकक्षायोपशमिकसम्यग्दर्शनेभ्यस्तदनुत्पत्तेः । नापि मिथ्यादृष्टय उपात्तौपशमिकसम्यग्दर्शनाः सन्तस्तत्रोत्पद्यन्ते तेषां तेन सह मरणाभावात्। न, उपशमश्रेण्यारूढानामारुह्यावतीर्णानां च तत्रोत्पत्तितस्तत्र तत्सत्वाविरोधात् । उपशमश्रेण्यारूढा उपशम. सम्यग्दृष्टयो न म्रियन्ते औपशमिकसम्य ग्दर्शनोपलक्षितत्वाच्छेषोपशमिकसम्यग्दृष्टय इवेति ___ उक्त देवोंमें तीनों ही प्रकारके सम्यग्दर्शनोंके साथ जीवोंकी उत्पत्ति देखी जाती है अथवा, वहांपर उत्पन्न होनेके पश्चात् वेदक और औपशमिक इन दो सम्यग्दर्शनोंका ग्रहण होता है, इसलिये उक्त देवों में तीनों सम्यग्दर्शनोंका सद्भाव बन जाता है। अब शेष देवोंमें सम्यग्दर्शनके भेद बतलानेके लिये सूत्र कहते हैं नव अनुदिशोंमें और विजय, वैजयन्त, जयन्त, अपराजित तथा सर्वार्थसिद्धि इन पांच अनुत्तरोंमें रहनेवाले देव असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानमें क्षायिकसम्यग्दृष्टि वेदकसम्यग्दृष्टि और उपशमसम्यग्दृष्टि होते हैं ॥१७१॥ शंका-वहांपर उपशम सम्यग्दर्शनका सद्भाव कैसे पाया जाता है? प्रतिशंका-वहांपर उसका सद्भाव कैसे नहीं पाया जा सकता है? शंका-वहांपर जो उत्पन्न होते हैं उनके क्षायिक और क्षायोपशमिक सम्यग्दर्शन पाया जाता है, इसलिये उनके उपशम सम्यग्दर्शनकी उत्पत्ति नहीं हो सकती है। और मिथ्यादृष्टि जीव उपशम सम्यग्दर्शनको ग्रहण करके वहांपर उत्पन्न नहीं होते हैं, क्योंकि, उपशमसम्यग्दृष्टियोंका उपशमसम्यक्त्वके साथ मरण नहीं होता है। समाधान--नहीं, क्योंकि, उपशम श्रेणीपर बढ़नेवाले और चढ़कर उतरनेवाले जीवोंकी अनुदिश और अनुत्तरों में उत्पत्ति होती है, इसलिये वहां परः उपशम सम्यक्त्वके सद्भाव रहने में कोई विरोध नहीं आता है। शंका-उपशम श्रेणीपर आरूढ़ हुए उपशमसम्यग्दृष्टि जीव नहीं मरते हैं, क्योंकि, वे उपशम सम्यग्दर्शनसे युक्त होते हैं। जिसप्रकार अन्य औपशमिक सम्यग्दृष्टियोंका मरण नहीं होता है? Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001395
Book TitleShatkhandagama Pustak 01
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1939
Total Pages560
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy