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________________ छक्खंडागमे जीवद्वाणं सुगमत्वात्सूत्रत्रितये न किञ्चिद्वक्तव्यमस्ति । भवणवासिय वणवेतर - जोइसिय- देवा देवीओ च सोधम्मीसाणकप्पवासिय देवीओ च असंजदसम्माइदिाणे खइयसम्माहट्टी णत्थि अवसेसा अत्थि अवसेसियाओ अस्थि ॥ १६९ ॥ ४०६ ] किमिति क्षायिकसम्यग्दृष्टयस्तत्र न सन्तीति चेन्न, देवेषु दर्शनमोहक्षपणाभावात्क्षपितदर्शनमोहकर्मणामपि प्राणिनां भवनवास्यादिष्वधमदेवेषु सर्वदेवीषु चोत्पत्तेरभावाच्च । शेषसम्यक्त्वद्वयस्य तत्र कथं सम्भव इति चेन्न, तत्रोत्पन्नजीवानां पश्चात्तत्पर्यायपरिणतेः सत्त्वात् । सोधम्मीसाण-पहुडि जाव उवरिम उवरिम- गेवज्ज- विमाणवासिय- देवा असंजदसम्माइ-डाणे अत्थि खइयसम्माट्टी वेदगसम्माइट्ठी उवसमसम्माइट्ठी ॥ १७० ॥ सम्यग्दृष्टि होते हैं ॥ १६८ ॥ [१, १, १६९. पूर्वोक्त तीनों सूत्रोंका अर्थ सुगम होनेसे इनके विषयमें अधिक कुछ भी नहीं कहना है । अब भवनवासी आदि देवों में विशेष प्रतिपादन करनेके लिये सूत्र कहते हैं— भवनवासी, वानव्यन्तर और ज्योतिषी देव तथा उनकी देवियां और सौधर्म तथा ईशान कल्पवासी देवियां असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान में क्षायिकसम्यग्दृष्टि नहीं होते हैं या नहीं होती हैं । शेषके दो सम्यग्दर्शनोंसे युक्त होते हैं या होती हैं ॥ १६९ ॥ शंका- क्षायिकसम्यग्दृष्टि जीव उक्त स्थानोंमें क्यों नहीं होते हैं ? समाधान- नहीं, क्योंकि, एक तो वहांपर दर्शनमोहनीयका क्षपण नहीं होता है । दूसरे जिन जीवोंने पूर्व पर्याय में दर्शनमोहनयिका क्षय कर दिया है उनकी भवनवासी आदि अधम देवों में और सभी देवियों में उत्पत्ति नहीं होती है । शंका -- शेषके दो सम्यग्दर्शनोंका उक्त स्थानोंमें सद्भाव कैसे संभव है ? समाधान- नहीं, क्योंकि, वहांपर उत्पन्न हुए जीवोंके अनन्तर सम्यग्दर्शनरूप पर्याय हो जाती है, इसलिये शेषके दो सम्यग्दर्शनोंका वहां पर सद्भाव पाया जाता है । अब शेष देवोंमें सम्यग्दर्शनके भेद बतलानेके लिये सूत्र कहते हैं सौधर्म और ऐशान कल्पसे लेकर उपरिम ग्रैवेयकके उपरिम भागतक रहनेवाले देव असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानमें क्षायिकसम्यग्दृष्टि, वेदकसम्यग्दृष्टि और उपशमसम्यग्दृष्टि होते हैं ॥ १७० ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001395
Book TitleShatkhandagama Pustak 01
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1939
Total Pages560
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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