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________________ ४०८] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं [१, १, १७२. चेन्न, पश्चात्कृतमिथ्यात्वसम्यक्त्वाभ्यामनुपशमितोपशमितचारित्रमोहाभ्यां च तयोबैंधात् । सम्यग्दर्शनमुखेन जीवपदार्थमभिधाय समनस्कामनस्कभेदेन जीवपदार्थप्रतिप्रतिपादनार्थमाह-- सणियाणुवादेण अत्थि सण्णी असण्णी ॥ १७२ ॥ सुगममेतत्सूत्रम्। संज्ञिनां गुणस्थानाध्वानप्रतिपादनार्थमाह सण्णी मिच्छाइट्टि-प्पहुडि जाव खीणकसाय-वीयराय-छदुमत्था त्ति ॥ १७३ ।। समनस्कत्वात्सयोगिकेवलिनोऽपि संज्ञिन इति चेन्न, तेषां क्षीणावरणानां मनोऽ वष्टम्भवलेन बाह्यार्थग्रहणाभावतस्तदसत्त्वात् । तर्हि भवन्तु केवलिनोऽसंज्ञिन इति चेन्न, साक्षात्कृताशेषपदार्थानामसंज्ञित्वविरोधात् । असंज्ञिनः केवलिनो मनोऽनपेक्ष्य बाह्यार्थ समाधान-नहीं, क्योंकि, पश्चात्कृत मिथ्यात्व और सम्यक्त्वकी अपेक्षा तथा अनुपशमित और उपशमित चारित्रमोहनीयकी अपेक्षा साधारण उपशम सम्यग्दृष्टियों और उपशम श्रेणीपर चढ़े हुए सम्यग्यष्टियों में वैधये है। इसप्रकार सम्यग्दर्शनके द्वारा जीव पदार्थका कथन करके अब समनस्क और अमनस्क इन दो भेदरूप संज्ञीमार्गणाके द्वारा जीव पदार्थके प्रतिपादन करनेके लिये सूत्र कहते हैं संज्ञी मार्गणाके अनुवादसे संज्ञी और असंही जीव होते हैं ॥ १७२॥ इस सूत्रका अर्थ सुगम है। अब संज्ञी जीवों के गुणस्थानों में प्रतिपादन करनेके लिये सूत्र कहते हैं संज्ञी जीव मिथ्यादृष्टि गुणस्थानसे लेकर क्षीणकषाय-वीतराग-छद्मस्थ गुणस्थानतक होते हैं ॥ १७३॥ शंका-मनसहित होनेके कारण सयोगकेवली भी संज्ञी होते हैं ? समाधान-नहीं, क्योंकि, आवरण कर्मसे रहित उनके मनके अवलम्बनसे बाह्य अर्थका ग्रहण नहीं पाया जाता है, इसलिये उन्हें संशी नहीं कह सकते। शंका-तो केवली असंशी रहे आवें?. समाधान--नहीं, क्योंकि, जिन्होंने समस्त पदार्थोंको साक्षात् कर लिया है उन्हें .. असंही मानने में विरोध आता है। शंका- केवली असंही होते हैं, क्योंकि, वे मनकी अपेक्षाके विना ही विकलेन्द्रिय १ संज्ञानुवादन संशिषु द्वादश गुणस्थानानि क्षीणकषायान्तानि । स. सि. १. ८. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001395
Book TitleShatkhandagama Pustak 01
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1939
Total Pages560
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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