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________________ छक्खंडागमे जीवद्वाणं [ १, १, १५८. स्वयम्प्रभादारान्मानुषोत्तरात्परतो भोगभूमिसमानत्वान्न तत्र देशत्रतिनः सन्ति तत एतत्सूत्रं न घटत इति न, वैरसम्बन्धेन देवैर्दानवैर्वोत्क्षिप्य क्षिप्तानां सर्वत्र सत्त्वाविरोधात् । सम्यग्दर्शनविशेषप्रतिपादनार्थमाह ४०२ ] तिरिक्खा असंजदसम्माइट्टि ड्डाणे अत्थि खइयसम्माइट्ठी वेदगसम्माट्टी उवसमसम्माहट्टी ॥ १५८ ॥ तिरिक्खा संजदासंजद-डाणे खइयसम्माइट्ठी णत्थि अवसेसा अत्थि ॥ १५९ ॥ तियक्षु क्षायिकसम्यग्दृष्टयः संयतासंयताः किमिति न सन्तीति चेन्न, क्षायिकसम्यग्दृष्टीनां भोगभूमिमन्तरेणोत्पत्तेरभावात् । न च भोगभूमावुत्पन्नानामणुव्रतोपादानं सम्भवति तत्र तद्विरोधात् । सुगममन्यत् । शंका - स्वयंभूरमण द्वीपवर्ती स्वयंप्रभ पर्वतके इस ओर और मानुषोत्तर पर्वतके उस ओर असंख्यात द्वीपोंमें भोगभूमिके समान रचना होनेसे वहांपर देशव्रती नहीं पाये जाते हैं, इसलिये यह सूत्र घटित नहीं होता है ? समाधान — नहीं, क्योंकि, वैरके संबन्धसे देवों अथवा दानवोंके द्वारा कर्मभूमि से उठाकर डाले गये कर्मभूमिज तिर्यचोंका सब जगह सद्भाव होने में कोई विरोध नहीं आता है, इसलिये वहांपर तिर्यंचों के पांचों गुणस्थान बन जाते हैं । अब तिर्यचों में सम्यग्दर्शनके विशेष प्रतिपादन करनेके लिये सूत्र कहते हैं तिर्यंच असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानमें क्षायिकसम्यग्दृष्टि, वेदकसम्यग्दृष्टि और उपशमसम्यग्दृष्टि होते हैं ॥ १५८ ॥ अब तिर्यंचोंके पांचवें गुणस्थान में विशेष प्रतिपादन करनेके लिये सूत्र कहते हैंतिर्यच संयतासंयत गुणस्थानमें क्षायिकसम्यग्दृष्टि नहीं होते हैं। शेषके दो सम्यग्दर्शनोंसे युक्त होते हैं ॥ १५९ ॥ शंका- तिर्यों में क्षायिकसम्यग्दृष्टि जीव संयतासंयत क्यों नहीं होते हैं ? समाधान- नहीं, क्योंकि, तिर्यचोंमें यदि क्षायिकसम्यग्दृष्टि जीव उत्पन्न होते हैं तो वे भोगभूमिमें ही उत्पन्न होते हैं, दूसरी जगह नहीं । परंतु भोगभूमिमें उत्पन्न हुए जीवोंके अणुव्रतकी उत्पत्ति नहीं हो सकती है, क्योंकि, वहांपर अणुव्रतके होनेमें आगमसे विरोध आता है। शेष कथन सुगम है । अब तिर्यंच - विशेषों में प्रतिपादन करनेके लिये सूत्र कहते हैं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001395
Book TitleShatkhandagama Pustak 01
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1939
Total Pages560
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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