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..१, १, १६३.] संत-परूवणाणुयोगद्दारे सम्मत्तमग्गणापरूवणं [ ४०३
एवं पंचिंदिय-तिरिक्खा पंचिंदिय-तिरिक्ख पज्जत्ता ॥१६०॥ एतदपि सुबोध्यम् ।
पंचिंदिय-तिरिक्ख-जोणिणीसु असंजदसम्माइटि-संजदासंजदटाणे खइयसम्माइट्ठी णत्थि, अवसेसा अत्थि ॥ १६१ ।।
तत्र क्षायिकसम्यग्दृष्टीनामुत्पत्तेरभावात्तत्र दर्शनमोहनीयस्य क्षपणाभावाच्च । मनुष्यादेशप्रतिपादनार्थमाहमणुस्सा अस्थि मिच्छाइट्ठी सासणसम्माइड्डी सम्मामिच्छाइट्ठी असंजदसम्माइटी संजदासंजदा संजदा ति ॥ १६२ ॥
सुगममेतत् । एवमड्ढाइज्ज-दीव-समुद्देसु ॥ १६३ ॥
वैरसम्बन्धेन क्षिप्तानां संयतानां संयतासंयतानां च सर्वद्वीपसमुद्रेषु संभवो भवत्विति चेन्न, मानुषोत्तरात्परतो देवस्य प्रयोगतोऽपि मनुष्याणां गमनाभावात् ।
इसीप्रकार पंचेन्द्रिय-तिर्यंच और पंचेन्द्रिय पर्याप्त-तिर्यंच भी होते हैं ॥ १६० ॥ इस सूत्रका अर्थ भी सुबोध्य है। अब योनिमती तिर्यों में विशेष प्रतिपादन करनेके लिये सूत्र कहते हैं
योनिमती-पंचेन्द्रिय-तिर्यंचोंके असंयतसम्यग्दृष्टि और संयतासंयत गुणस्थानमें क्षायिकसम्यग्दृष्टि नहीं होते हैं । शेषके दो सम्यग्दर्शनोंसे युक्त होते हैं ॥ १६१ ॥
योनिमती पंचेन्द्रिय तिर्यंचोंमें क्षायिकसम्यग्दृष्टि जीव मरकर उत्पन्न नहीं होते हैं और जो वहां उत्पन्न होते हैं उनके दर्शनमोहनीयका क्षय नहीं होता है, अतः वहां क्षायिक सम्यग्दर्शन नहीं पाया जाता है।
अब मनुष्योंमें विशेष प्रतिपादन करनेके लिये सूत्र कहते हैं
मनुष्य मिथ्यादृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि, सम्यग्मिथ्यादृष्टि, असंयतसम्यग्दृष्टि, संयतासंयत और संयत होते हैं ॥१६२॥
इस सूत्रका अर्थ सुगम हैउन्हीं में और विशेष कहनेके लिये सूत्र कहते हैंइसीप्रकार ढाई द्वीप और दो समद्रों में जानना चाहिये॥१३॥
शंका-वैरके संबन्धसे डाले गये संयत और संयतासंयत आदि मनुष्योंका संपूर्ण द्वीप और समुद्रोंमें सद्भाव रहा आवे, ऐसा मान लेनेमें क्या हानि है?
समाधान--नहीं, क्योंकि, मानुषोत्तर पर्वतके उस तरफ देवोंकी प्रेरणासे भी मनुष्योंका गमन नहीं हो सकता है । ऐसा न्याय भी है कि जो स्वतः असमर्थ होता है वह
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