SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 520
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १, १, १५७. ] संत-परूवणाणुयोगद्दारे सम्मत्तमग्गणापरूवणं [ ४०१ विदियादि जाव सत्तमाए पुढवीए णेरइया असंजदसम्माइट्ठट्ठाणे खइयसम्माइट्ठी णत्थि, अवसेसा अत्थि ॥ १५५ ॥ सप्तप्रकृतीषु क्षीणासु किमिति तत्र नोत्पद्यन्त इति चेत्स्वाभाव्यात् । तत्रस्थाः सन्तः किमिति सप्तप्रकृतीर्न क्षपयन्तीति चेन्न, तत्र जिनानामभावात् । तिर्यगादेश प्रतिपादनार्थमाह तिरिक्खा अस्थि मिच्छाइट्ठी सासणसम्माट्टी सम्मामिच्छाट्टी असंजदसम्माही संजदासंजदा ति ॥ १५६ ॥ संन्यस्तशरीरत्वाच्यक्ताहाराणां तिरवां किमिति संयमो न भवेदिति चेन, अन्तरङ्गायाः सकलनिवृत्तेरभावात् । किमिति तदभावश्चेज्जातिविशेषात् । एवं जाव सव्व-दीव - समुद्देसु ॥ १५७ ॥ दूसरी पृथिवीसे लेकर सातवीं पृथिवीतक नारकी जीव असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानमें क्षायिकसम्यग्दृष्टि नहीं होते हैं। शेषके दो सम्यग्दर्शनोंसे युक्त होते हैं ॥ १५५ ॥ शंका - सम्यक्त्वक प्रतिबन्धक सात प्रकृतियोंके क्षय हो जानेपर क्षायिकसम्यग्दृष्टि जीव द्वितीयादि पृथिवियोंमें क्यों उत्पन्न नहीं होते हैं ? समाधान - ऐसा स्वभाव ही है कि क्षायिकसम्यग्दृष्टि जीव द्वितीयादि पृथिवियोंमें नहीं उत्पन्न होते हैं । शंका- द्वितीयादि पृथिवियों में रहनेवाले नारकी सम्यक्त्वकी प्रतिबन्धक सात प्रकृतियोंका क्षय क्यों नहीं करते हैं ? समाधान - - नहीं, क्योंकि, वहांपर जिनेन्द्रदेवका अभाव है । अब तिर्येच गतिमें विशेष प्रतिपादन करनेके लिये सूत्र कहते हैं तिर्येच मिथ्यादृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि, सम्यग्मिथ्यादृष्टि, असंयतसम्यग्दृष्टि और संयतासंयत होते हैं ॥ १५६ ॥ शंका- शरीरसे संन्यास ग्रहण कर लेनेके कारण जिन्होंने आहारका त्याग कर दिया है ऐसे तिर्यों के संयम क्यों नहीं होता है ? समाधान-नहीं, क्योंकि, उनके आभ्यन्तर सकल-निवृत्तिका अभाव है । शंका- उनके आभ्यन्तर सकल-निवृत्तिका अभाव क्यों है ? समाधान -- जिस जातिमें वे उत्पन्न हुए हैं उसमें संयम नहीं होता यह नियम है, इसलिये उनके संयम नहीं पाया जाता है । अब तिर्यचोंके और विशेष प्रतिपादन करनेके लिये सूत्र कहते हैंइसीप्रकार संपूर्ण द्वीप समुद्रवत तिर्थयों में समझना चाहिये ॥ १५७ ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001395
Book TitleShatkhandagama Pustak 01
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1939
Total Pages560
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy