SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 519
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ४०० ] छक्खंडागमे जीवद्वाणं [ १, १, १५३. कथं सामान्यवद्विशेषः स्यादिति चेन्न, विशेषव्यतिरिक्त सामान्यस्या सच्चात् । नाव्यतिरेकोऽपि द्वयोरभावासञ्जननात् । नोभयपक्षोऽपि पक्षद्वयोक्तदोषासञ्जननात् । नानुभयपक्षोsपि निःस्वभावप्रसङ्गात् । न च सामान्यविशेषयोरभाव एव प्राप्तजात्यन्तरत्वेनोपलम्भात् । ततः सूक्तमेतदिति स्थितम् । सम्यग्दर्शनविशेषप्रतिपादनार्थमाह रश्या असंजदसम्माइट्टि द्वाणे अत्थि खइयसम्माहट्टी वेदगसम्माट्ठी उवसमसम्माइट्ठी चेदि ।। १५३ || सुगममेतत् । एवं पढमाए पुढवीए रइआ ॥ १५४ ॥ एतदपि सुबोध्यम् । शंका- -- सामान्य कथनके समान ही विशेष कथन कैसे हो सकता है ? समाधान- नहीं, क्योंकि, विशेषको छोड़कर सामान्य नहीं पाया जाता है, इसलिये सामान्य कथनसे विशेषका भी बोध हो जाता है । इससे सामान्य और विशेष में सर्वथा अभेद भी नहीं समझ लेना चाहिये, क्योंकि, दोनोंमें सर्वथा अभेद मान लेने पर दोनोंका अभाव हो जायगा । इसीप्रकार इन दोनों में सर्वथा उभयपक्ष अर्थात् सर्वथा भेद और सर्वथा अभेद भी नहीं माना जा सकता है, क्योंकि, ऐसा मानने पर दोनों पक्षमें दिये गये दोष प्राप्त हो जायंगे । सामान्य और विशेषको सर्वथा अनुभयरूप भी नहीं मान सकते हैं, क्योंकि, ऐसा मान लेनेपर वस्तुको निःस्वभावताका प्रसंग आ जायगा । परंतु इसप्रकार सामान्य और विशेषका अभाव भी नहीं माना जा सकता है, क्योंकि, जात्यन्तर अवस्थाको प्राप्त होने रूपसे उन दोनोंकी उपलब्धि होती है । इसलिये ऊपर जो कथन किया है वह सर्वथा ठीक है, यह बात निश्चित हो जाती है । अब सम्यग्दर्शनका मार्गणाओं में प्रतिपादन करने के लिये सूत्र कहते हैं नारकी जीव असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान में क्षायिक सम्यग्दृष्टि, वेदकसम्यग्दृष्टि, और उपशमसम्यग्दृष्टि होते हैं ॥ १५३ ॥ इस सूत्र का अर्थ सुगम है । अब प्रथम पृथिवीमें सम्यग्दर्शन बतलानेके लिये सूत्र कहते हैं— इसीप्रकार प्रथम पृथिवी में नारकी जीव होते हैं ॥ १५४ ॥ इस सूत्र का अर्थ भी सुबोध है । अब शेष पृथिवियों में सम्यग्दर्शनके निरूपण करनेके लिये सूत्र कहते हैं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001395
Book TitleShatkhandagama Pustak 01
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1939
Total Pages560
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy