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________________ १, १, १५२.] संत-परूवणाणुयोगदारे सम्मत्तमग्गणापरूवणं [३९९ . सम्मामिच्छाइट्टी एकम्मि चेय सम्मामिच्छाइटिटाणे ॥१४९॥ मिच्छाइट्टी एइंदिय-प्पहुडि जाव सण्णि-मिच्छाइट्टि ति॥१५०॥ सुगमत्वात्रिष्वप्येतेषु सूत्रेषु न वक्तव्यमस्ति । सम्यग्दर्शनादेशप्रतिपादनार्थमाह णेरइया अत्थि मिच्छाइट्टी सासण-सम्माइट्ठी सम्मामिच्छाइही असंजदसम्माइहि त्ति ॥ १५१ ॥ अथ स्याद्गतिनिरूपणायामस्यां गतौ इयन्ति गुणस्थानानि सन्ति, इयन्ति न सन्तीति निरूपितत्वान्न वक्तव्यमिदं सूत्रम्, सम्यक्त्वनिरूपणायां गुणस्थाननिरूपणावसराभावाचेति न, विस्मृतपूर्वोक्तार्थस्य प्रतिपाद्यस्य तमर्थ संस्मार्य तत्र तत्र गतौ सम्यग्दर्शनभेदप्रतिपादनप्रवणत्वात् । सुगममन्यत् । एवं जाव सत्तसु पुढवीसु ॥ १५२ ।। सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीव एक सम्यग्मिथ्यादृष्टि गुणस्थानमें ही होते हैं ॥ १४९ ॥ मिथ्यादृष्टि जीव एकेन्द्रियसे लेकर संशी मिथ्यादृष्टितक होते हैं ॥ १५० ॥ इन तीनों सूत्रोंका अर्थ सुगम है, अतएव इनके विषयमें अधिक कुछ भी नहीं कहना है। अब सम्यग्दर्शनका मार्गणाओं में निरूपण करनेके लिये सूत्र कहते हैं नारकी जीव मिथ्यादृष्टि सासादनसम्यग्दृष्टि सम्यग्मिथ्यादृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवर्ती होते हैं ॥ १५१॥ शंका-- गतिमार्गणाका निरूपण करते समय 'इस गतिमें इतने गुणस्थान होते हैं और इतने नहीं होते है। इस बातका निरूपण कर ही आये हैं, इसलिये इस सूत्रके कथनकी कोई आवश्यकता नहीं है। अथवा, सम्यग्दर्शनमार्गणाके निरूपण करते समय गुणस्थानोंके निरूपणका अवसर ही नहीं है, इसलिये भी सूत्रके कथनकी आवश्यकता नहीं है ? समाधान-नहीं, क्योंकि, जो शिष्य पूर्वोक्त अर्थको भूल गया है उसके लिये, उस अर्थका पुनः स्मरण कराके उन उन गतियोंमें सम्यग्दर्शनके भेदोंके प्रतिपादन करनेमें यह सूत्र समर्थ है, इसलिये इस सूत्रका अवतार हुआ है। शेष कथन सुगम है। अब सातों पृथिवियोंमें सम्यग्दर्शनके निरूपण करनेके लिये सूत्र कहते हैंइसीप्रकार सातों पृथिवियोंमें प्रारम्भके चार गुणस्थान होते हैं ॥ १५२ ॥ १ सासादनसम्यम्हष्टिः सम्यग्मिथ्याइष्टिमिथ्यादृष्टिश्च स्वे स्वे स्थाने । स. सि. १..८. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001395
Book TitleShatkhandagama Pustak 01
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1939
Total Pages560
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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