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(२९) किंतु वहांसे पं. भुजबलिजी शास्त्री सूचित करते हैं कि बहुत खोज करने पर भी उस पट्टावलीकी मूल प्रति मिल नहीं रही है । ऐसी अवस्थामें हमें उसकी जांच मुद्रित पाठ परसे ही करनी पड़ती है । यह पट्टावली प्राकृतमें है और संभवतः एक प्रतिपरसे विना कुछ संशोधनके छपाई गई होनेसे उसमें अनेक भाषादि-दोष हैं । इसलिये उस परसे उसकी रचनाके समयके सबन्धमें कुछ कहना अशक्य है । पट्टावलीके ऊपर जो तीन संरकृत श्लोक हैं उनकी रचना बहुत शिथिल है । तीसरा श्लोक सदोष है । पर उन पर विचार करनेसे ऐसा प्रतीत होता है कि उनका रचयिता स्वयं पट्टावलीकी रचना नहीं कर रहा, किंतु वह अपनी उस प्रस्तावनाके साथ एक प्राचीन पट्टावलीको प्रस्तुत कर रहा है। पट्टावलीको नन्दि आम्नाय, बलात्कार गण, सरस्वती गच्छ व कुन्दकुन्दान्वयकी कहनका यह तो तात्पर्य हो ही नहीं सकता कि उसमें उल्लिखित आचार्य उस अन्वयमें कुन्दकुन्दके पश्चात् हुए हैं, किंतु उसका अभिप्राय यही है कि लेखक उक्त अन्वयका था और ये सब आचार्य उक्त अन्वयमें माने जाते थे । इस पट्टावलीमें जो अंगविच्छेदका क्रम और उसकी कालगणना पाई जाती है वह अन्यत्रकी मान्यताके विरुद्ध जाती है। किंतु उससे अकस्मात् अंगलोपसंबन्धी कठिनाई कुछ कम हो जाती है और जो पांच आचार्योका २२० वर्षका काल असंभव नहीं तो दुःशक्य जंचता है उसका समाधान हो जाता है । पर यदि यह ठीक हो तो कहना पड़ेगा कि श्रुत-परम्पराके संबन्धमें हरिवंशपुराणके कर्तासे लगाकर श्रुतावतारके कर्ता इन्द्रनन्दितकके सब आचार्योंने धोखा खाया है और उन्हें वे प्रमाण उपलब्ध नहीं थे जो इस पट्टावलीके कर्ताको थे । समयाभावके कारण इस समय हम इसकी और अधिक जांच पड़ताल नहीं कर सकते। किंतु साधक बाधक प्रमाणोंका संग्रह करके इसका निर्णय किये जानेकी आवश्यकता है।
___यदि यह पट्टावली ठीक प्रमाणित हो जाय तो हमारे आचार्योंका समय वीर निर्वाणके पश्चात् ६२ + १०० + १८३ + १२३ + ९७ + २८ + २१ = ६१४ और ६८३ वर्षके भीतर पड़ता है।
धरसेन, पुष्पदन्त और भूतवालके समय पर प्रकाश डालनेवाला एक और प्रमाण है। धरसेनकृत प्रस्तुत ग्रन्थकी उत्थानिकामें कहा गया है कि जब धरसेनाचार्य के पत्रके उत्तरमें
जोणिपाहुड आन्ध्रदेशसे दो साधु, जो पीछे पुष्पदन्त और भूतबलि कहलाये, उनके पास पहुंचे तब धरसेनाचार्यने उनकी परीक्षाके लिये उन्हें कुछ मंन्त्रविद्याएं सिद्ध करनेके लिये दी। इससे धरसेनाचार्यकी मन्त्रविद्यामें कुशलता सिद्ध होती है। अनेकान्त भाग २ के गत १ जुलाई के अंक ९ में श्रीयुत् पं. जुगलकिशोरजी मुख्तारका लिखा हुआ योनिप्राभृत ग्रन्थका परिचय प्रकाशित हुआ है, जिससे ज्ञात होता है कि यह ग्रन्थ ८०० श्लोक प्रमाण प्राकृत गाथाओंमें है, उसका विषय मन्त्र-तन्त्रवाद है, तथा वह १५५६ वि. संवत्में लिखी गई बृटिप्पणिका नामकी प्रन्थ-सूचीके
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