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________________ आधारपर से धरसेनद्वारा वीर निर्वाणसे ६०० वर्ष पश्चात् बना हुआ माना गया है । इस प्रथकी एक प्रति भांडारकर इंस्टीट्यूट पूनामें है, जिसे देखकर पं. बेचरदासजीने जो नोट्स लिये थे उन्हीं परसे मुख्तारजीने उक्त परिचय लिखा है । इस प्रतिमें ग्रंथका नाम तो योनिप्राभृत ही है किंतु उसके कर्ताका नाम पण्हसवण मुनि पाया जाता है । इन महामुनिने उसे कूष्माण्डिनी महादेवीसे प्राप्त किया था और अपने शिष्य पुष्पदंत और भूतबलिके लिये लिखा था। इन दो नामोंके कथनसे इस ग्रंथका धरसेनकृत होना बहुत संभव जंचता है । प्रज्ञाश्रमणत्व एक ऋद्धिका नाम है और उसके धारण करनेवाले मुनि प्रज्ञा श्रमण कहलाते थे । जोणिपाहुडकी इस प्रतिका लेखन-काल संवत् १५८२ है, अर्थात् वह चारसौ वर्षसे भी अधिक प्राचीन है । 'जोणिपाहुड' नामक ग्रंथका उल्लेख धवलामें भी आया है। जो इस प्रकार है-- ‘जोणिपाहुडे भणिद-मंत-तंत-सत्तीओ पोग्गलाणुभागो त्ति घेत्तव्यो' (धवला. अ. प्रति. पत्र ११९८ ) इससे स्पष्ट है कि योनिप्राभूत नामका मंत्रशास्त्रसंबन्धी कोई अत्यन्त प्राचीन ग्रंथ अवश्य है। उपर्युक्त अवस्थामें आचार्य धरसेननिर्मित योनिप्राभत ग्रंथके होनेमें अविश्वासका कोई कारण नहीं है । तथा वृहट्टिप्पणिकामें जो उसका रचनाकाल वीर निर्वाणसे ६०० वर्ष पश्चात् सूचित किया है वह भी गलत सिद्ध नहीं होता। अभी अभी अनंकान्त (वर्ष २, किरण १२, पृ. ६६६) में श्रीमान् पं. नाथूरामजी प्रेमीका ‘योनिप्राभूत और प्रयोगमाला ' शीर्षक लेख छपा है, जिसमें उन्होंने प्रमाण देकर बतलाया है कि भंडारकर इंस्टीट्यूटवाला ' योनिप्राभृत ' और उसके साथ गुंथा हुआ 'जगत्सुंदरी योगमाला ' संभवतः हरिषेगकृत है, किंतु हरिषेणके समयमें एक और प्राचीन योनिप्राभूत विद्यमान था । बृहटिप्पणिकाकी प्रामाणिकताके विषयमें प्रेमीजीने कहा है कि १ योनिप्राभूतं वीरात ६०० धारसेनम् । (वृहविपणिका जे. सा. सं. १, २ (परिशिष्ट ) ३ धवलाम पण्हसमणोंको नमस्कार किया है और अन्य ऋद्धियोंके साथ प्रज्ञाश्रमणत्व · ऋद्धिका विवरण दिया है। यथा-- णमो पण्हसमणाणं ॥ १८ ।। औत्पत्तिकी वैनयिकी कर्मजा पारिणामिकी चेति चतुर्विधा प्रज्ञा । एदेसु पण्डसमणेसु केसिं गहणं । चदण्ड पि गहणं | प्रज्ञा एव श्रवण येषां ते प्रज्ञाश्रवणाः धवला. अ. प्रति ६८४ जयधवलाकी प्रशस्तिमें कहा गया है कि वीरसेनके ज्ञानके प्रकाशको देखकर विद्वान् उन्हें श्रुतकेवली और प्रज्ञाश्रमण कहते थे। यथा-- यमाहुः प्रस्फुरद्वोधदीधितिप्रसरोदयम् | श्रुतकवलिन प्राज्ञाः प्रज्ञाश्रवणसत्तमम् ॥ २२ ॥ तिलोयपण्णति गाथा ७० में कहा गया है कि प्रज्ञाश्रमणोंमें अन्तिम मुनि 'वज्रयश' नामके हुए। यथा...पण्हसमणेसु चरिमो वइरजसो णाम | (अनेकान्त, २,१२ पृ. ६६८) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001395
Book TitleShatkhandagama Pustak 01
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1939
Total Pages560
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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