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________________ (२८) आचार्य भी हो जाते हैं जिनके भीतर हमारे ग्रंथकर्ता धरसेन, पुष्पदन्त और भूतबलि भी सम्मिलित हैं। अब विचारणीय प्रश्न यह है कि जो एकादशांगधारियों और उनके पश्चात्के आचायोंके समयोंमें अन्तर पड़ता है वह क्यों और किसप्रकार ? कालसंबन्धी अंकोंपर विचार करनेसे ही स्पष्ट हो जाता है कि जहां पर अन्यत्र पांच एकादशांगधारियों और चार एकांगधारियोंका समय अलग अलग २२० और ११८ वर्ष बतलाया गया है वहां इस पट्टावलीमें उनका समय क्रमशः १२३ और ९७ वर्ष बतलाया है अर्थात् २२० वर्षके भीतर नौ ही आचार्य आ जाते हैं और आगे ११८ वर्षमें अन्य पांच आचार्य गिनाये गये हैं जिनके अन्तर्गत धरसेन, पुष्पदन्त और भूतबलि भी हैं। जहां अनेक क्रमागत व्यक्तियोंका समय समष्टिरूपसे दिया जाता है वहां बहुधा ऐसी भूल हो जाया करती है। किंतु जहां एक एक व्यक्तिका काल निर्दिष्ट किया जाता है वहां ऐसी भूलकी संभावना बहुत कम हो जाती है। हिन्दु पुराणोंमें अनेक स्थानोंपर दो राजवंशोंका काल एक ही वंशके साथ दे दिया गया है । स्वयं महावीर तीर्थकरके निर्वाणसे पश्चात्के राजवंशोंका जो समय जैन ग्रंथोंमें पाया जाता है उसमें भी इसप्रकारकी एक भूल हुई है, जिसके कारण वीरनिर्वाणके समयके संबन्धमें दो मान्यतायें हो गई हैं जिनमें परस्पर ६० वर्षका अन्तर पड़ गया है । (देखो आगे वीरनिर्वाण संवत् )। प्रस्तुत परंपरामें इन २२० वर्षोंके कालमें भी ऐसा ही भ्रम हुआ प्रतीत होता है। यह भी प्रश्न उठता है कि यदि अर्हद्वलि आदि आचार्य अंगज्ञाताओंकी परंपरामें थे तो उनके नाम सर्वत्र परंपराओंमें क्यों नहीं रहे, इसका कारण अर्हद्बलिके द्वारा स्थापित किया गया संघभेद प्रतीत होता है । उनके पश्चात् प्रत्येक संघ अपनी अपनी परंपरा अलग रखने लगा, जिसमें स्वभावतः संघभेदके पश्चात्के केवल उन्हीं आचार्योंके नाम रक्खे जा सकते थे जो उसी संघके हों या जो संघभेदसे पूर्वके हों। अतः केवल लोहार्य तककी ही परंपरा सर्वमान्य रही। संभव है कि इसी कारण काल-गणनामें भी वह गड़बड़ी आगई हो, क्योंकि अंगज्ञाताओंकी परपराको संघ-पक्षपातसे बचानेके लिये लेखकोंका यह प्रयत्न हो सकता है कि अंग-परंपराका काल ६८३ वर्ष ही बना रहे और उसमें अर्हद्वलि आदि संघ-भेदसे संबन्ध रखनेवाले आचार्य भी न दिखाये जावें। प्रश्न यह है कि क्या हम इस पट्टावलीको प्रमाण मान सकते हैं, विशेषतः जब कि उसकी वार्ता प्रस्तुत ग्रन्थों व श्रुतावतारादि अन्य प्रमाणोंके विरुद्ध.जाती है ? इस पट्टावलीकी जांच करनेके लिये हमने सिद्धान्तभवन आराको उसकी मूल हस्तलिखित प्रति भेजनके लिये लिखा, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001395
Book TitleShatkhandagama Pustak 01
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1939
Total Pages560
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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