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(२७) २० नक्षत्र ग्यारह २८ लोहाचार्य
५२ (५०) अंगधारी २१ जयपाल
९९ (९७) २२ पांडव २३ ध्रुवसेन
२९ अर्हद्वलि एक अंगधारी २८ २४ कंस
३० माघनन्दि ३१ धरसेन
३२ पुष्पदन्त २५ सुभद्र
३३ भूतबलि दश नव
व आठ २६ यशोभद्र अंगधारी २७ भद्रबाहु
कुलजोड़ ६८३ . इस पट्टावलीमें प्रत्येक आचार्यका समय अलग अलग निर्दिष्ट किया गया है, जो अन्यत्र
र नहीं पाया जाता, और समष्टिरूपसे भी वर्ष-संख्यायें दी गई हैं । प्रथम तीन पट्टावलीकी
" केवलियों, पांच श्रुतकेवलियों और ग्यारह दशपूर्विषोंका समय क्रमशः वही ६२,
. १००, और १८३ वर्ष बतलाया गया है और इसका योग ३४५ विशेषताए वर्ष कहा है। किन्तु दशपर्वधारी एक एक आचार्यका जो काल दिया है उसका योग १८१ वर्ष आता है। अतएव स्पष्टतः कहीं दो वर्ष की भूल ज्ञात होती है, क्योंकि, नहीं तो यहां तकका योग ३४५ वर्ष नही आसकता । इसके आगे जिन पांच एकादशांगधारियोंका समय अन्यत्र २२० वर्ष बतलाया गया है उनका समय यहां १२३ वर्ष दिया है । इनके पश्चात् आगेके जिन चार आचार्योंको अन्यत्र एकांगधारी कह कर श्रुतज्ञानकी परंपरा पूरी कर दी गई है उन्हें यहां क्रमशः दश, नव और आठ अंगके धारक कहा है, पर यह स्पष्ट नहीं किया गया कि कौन कितने अंगोंका ज्ञाता था। इससे दश अंगोंका अचानक लोप नहीं पाया जाता, जैसा कि अन्यत्र । इनका समय ११८ वर्ष के स्थानपर ९७ वर्ष बतलाया गया है। पर आचार्योका समय जोड़नेसे ९९ आता है अतः दो वर्ष की यहां भी भूल है । तथा
उनसे आगे पांच और आचार्योंके नाम गिनाये गये हैं जो एकांगधारी कहे गये हैं। उनके नाम · अहिवल्लि (अर्हद्वलि) माघनन्दि, धरसेन, पुष्पदन्त और भूतबलि हैं। इनका समय क्रमशः २८,
२१,१९, ३० और २० वर्ष दिया गया है जिसका योग ११८ वर्ष होता है। इससे पूर्व श्रुतावतारमें विनयधर आदि जिन चार आचार्योंके नाम दिये गये हैं वे यहां नहीं पाये जाते। इसप्रकार इस पावलीके अनुसार भी अंग-परंपराका कुल काल ६२ + १०० + १८३ + १२३ +९७ + ११८ = ६८३ वर्ष ही आता है जितना कि अन्यत्र बतलाया गया है । परंतु भेद यह है कि अन्यत्र यह काल लोहाचार्य तक ही पूरा कर दिया गया है और यहांपर उसके अन्तर्गत वे पांच
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