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________________ १, १, १४४. ] संत - परूवणाणुयोगद्दारे सम्मत्तमग्गणापरूवणं एतदपि सुगमम् । सम्मत्ताणुवादेण अस्थि सम्माइट्ठी खइयसम्म इट्टी वेदग सम्माहट्टी उवसमसम्माइट्ठी सासणसम्माहट्टी सम्मामिच्छाइट्टी मिच्छाइट्ठी चेदि ॥ १४४ ॥ आम्रवनान्तस्थनिम्बानामाश्रवनव्यपदेशवन्मिथ्यात्वादीनां न्याय्यः । सुगममन्यत् । उक्तं च [ ३९५ पंच-व-विहाणं अत्थाणं जिणवरोवड्डाणं । आणाए अहिगमेण व सदहणं होइ सम्मत्तं ॥ २१२ ॥ खीणे दंसण-मोहे जं सद्दहणं सुणिम्मलं होई । ॥ २१३ ॥ तं खाइय-सम्मत्तं णिचं कम्म क्खवण-हेऊ' यहि ऊहि वि इंदिय भय आणएहि रूहि । बीहच्छ- दुर्गुछाहि ण सो ते लोक्केण चालेज्ज ॥ २१४ ॥ सम्यक्त्वव्यपदेशो इस सूत्र का अर्थ भी सुगम है । अब सम्यक्त्वमार्गणाके अनुवादसे जीवों के अस्तित्व के प्रतिपादन करनेके लिये सूत्र कहते हैं सम्यक्त्वमार्गणा अनुवादसे सामान्यकी अपेक्षा सम्यग्दृष्टि और विशेषकी अपेक्षा क्षायिक सम्यग्दृष्टि, वेदकसम्यग्दृष्टि, उपशमसम्यग्दृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि, सम्यग्मिथ्यादृष्टि और मिथ्यादा जीव होते हैं ॥ १४४ ॥ Jain Education International जिसप्रकार आम्रवनके भीतर रहनेवाले नीमके वृक्षोंको आम्रवन यह संज्ञा प्राप्त हो जाती है, उसीप्रकार मिथ्यात्व आदिको सम्यक्त्व यह संज्ञा देना उचित ही है । शेष कथन सुगम है । कहा भी है जिनेन्द्रदेव के द्वारा उपदिष्ट छह द्रव्य, पांच अस्तिकाय और नव पदार्थोंका आज्ञा अथवा अधिगम से श्रद्धान करनेको सम्यक्त्व कहते हैं ॥ २१२ ॥ दर्शनमोहनीय कर्मके सर्वथा क्षय हो जाने पर जो निर्मल श्रद्धान होता है वह क्षायिक सम्यक्त्व है । जो नित्य है और कर्मोके क्षपणका कारण है ॥ २१३ ॥ श्रद्धानको भ्रy करनेवाले वचन या हेतुओंसे अथवा इन्द्रियोंको भय उत्पन्न करनेवाले १ गाथेयं पूर्वमपि ९६ गाथाङ्केन आगता । तहियाणं तु भावाणं सम्भावे उवएसणं । भावेणं सद्दहं तस्स सम्मर्च तं वियाहियं ॥ उत्स. २८. १५. २ गो. जी. ६४६. ३ गो. जी. ६४७. For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001395
Book TitleShatkhandagama Pustak 01
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1939
Total Pages560
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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