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________________ ३९४ ] छक्खंडागमे जीवद्वाणं [ १, १, १४२, च योग्याः सर्वेऽपि नियमेन निष्कलङ्का भवन्ति सुवर्णपाषाणेन व्यभिचारात् । उक्तं चएय- णिगोद- सरीरे जीवा दव्व - पमाणदो दिट्ठा । सिद्धेहि अनंत गुणा सव्त्रेण वितीद - काले ' ॥ २१० ॥ तद्विपरीताः अभव्याः । उक्तं च भविया सिद्धी जेसिं जीवाणं ते भवंति भव- सिद्धा । तन्विवदाभव्या संसारादो ण सिज्यंति' ॥ २११ ।। भव्यगुणस्थानप्रतिपादनार्थमाहभवसिद्धिया एइंदिय पहुडि जाव अजोगिकेवलि त्ति ॥ १४२ ॥ सुगममेतत् । अभव्यानां गुणस्थाननिरूपणायाह अभवसिद्धिया त्तिं ॥ १४३ ॥ एइंदिय-पहुडि जाव ऐसा कोई नियम नहीं है, क्योंकि, सर्वथा ऐसा मान लेने पर स्वर्णपाषाणसे व्यभिचार आ जायगा। कहा भी है साण्ण-मिच्छाइट्ठि द्रव्यप्रमाणकी अपेक्षा सिद्धराशिसे और संपूर्ण अतीत कालसे अनन्तगुर्णे जीव एक निगोदशरीर में देखे गये हैं ॥ २९० ॥ भव्यों से विपरीत अर्थात् मुक्तिगमनकी योग्यता न रखनेवाले अभव्य जीव होते हैं । कहा भी है जिन जीवोंकी अनन्तचतुष्टयरूप सिद्धि होनेवाली हो अथवा जो उसकी प्राप्तिके योग्य हों उन्हें भव्यसिद्ध कहते हैं । और इनसे विपरीत अभव्य होते हैं । जो संसार से निकलकर कभी भी मुक्तिको प्राप्त नहीं होते हैं ॥ २११ ॥ अब भव्यजीवों के गुणस्थानोंका प्रतिपादन करनेके लिये सूत्र कहते हैं भव्यासिद्ध जीव एकेन्द्रियसे लेकर अयोगिकेवली गुणस्थानतक होते हैं ॥ १४२ ॥ इस सूत्र का अर्थ सुगम है अब अभव्यजीवोंके गुणस्थानका निरूपण करनेके लिये सूत्र कहते हैंअभव्यसिद्ध जीव एकेन्द्रियसे लेकर संज्ञी मिथ्यादृष्टि गुणस्थानतक होते हैं ॥ १४३ ॥ Jain Education International १ गो. जी. १९६. २ गो. जी. ५५७. ( भवसिद्धा ) अनेन सिद्धेर्लब्धियोग्यताभ्यां भव्यानां द्वैविध्यमुक्तं । जी. प्र. टी. ३ भव्यानुवादेन भव्येषु चतुर्दशापि सन्ति । स. सि. १.८. ४ अभव्य आद्य एव स्थाने । स. सि. १.८. For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001395
Book TitleShatkhandagama Pustak 01
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1939
Total Pages560
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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