________________
१, १, १४१. ]
संत-परूवणाणुयोगद्दारे भवियमग्गणापरूवणं
[ ३९३
क्षयदर्शनादनैकान्तिक आनन्त्यहेतुरिति चेन्न, उभयोर्मिन निबन्धनतः प्राप्तानन्तयोः साम्याभावतोऽर्द्धपुद्गल परिवर्तनस्य वास्तवानन्त्याभावात् । तद्यथा, अर्द्धपुद्गलपरिवर्तन कालः सक्षयोऽप्यनन्तः छद्मस्थैरनुपलब्धपर्यन्तत्वात् । केवलमनन्तस्तद्विषयत्वाद्वा । जीवराशिस्तु पुनः संख्येयराशिक्षयोऽपि निर्मूलप्रलयाभावादनन्त इति । अथवा छद्मस्थानुपलब्ध्यपेक्षामन्तरेणानन्त्यादिति विशेषणाद्वा नानैकान्तिक इति । किं च सव्ययस्य निरवशेषक्षयेऽभ्युपगम्यमाने कालस्यापि निरवशेषक्षयो जायेत सव्ययत्वं प्रत्यविशेषात् । अस्तु चेन्न, सकलपर्योयप्रक्षयतोऽशेषस्य वस्तुनः प्रक्षीणस्वलक्षणस्याभावापत्तेः । मुक्तिमनुपगच्छतां कथं पुनर्भव्यत्वमिति चेन्न, मुक्तिगमनयोग्यतापेक्षया तेषां भव्यव्यपदेशात् । न
इसलिये भव्य राशिके क्षय न होनेमें जो अनन्तरूप हेतु दिया है वह व्यभिचरित हो जाता है ?
समाधान- नहीं, क्योंकि, भिन्न भिन्न कारणोंसे अनन्तपनेको प्राप्त भव्यराशि और अर्धपुल- परिवर्तनरूप काल इन दोनों राशियों में समानताका अभाव है, और इसलिये अर्धपुद्गलपरिवर्तन काल वास्तव में अनन्तरूप नहीं है । आगे इसीका स्पष्टीकरण करते हैं
अर्धपुद्गल-परिवर्तन काल क्षयसहित होते हुए भी इसलिये अनन्त है कि छद्मस्थ जीवों के द्वारा उसका अन्त नहीं पाया जाता है । किंतु केवलज्ञान वास्तव में अनन्त है । अथवा, अनन्तको विषय करनेवाला होनेसे वह अनन्त है। जीवराशि तो, उसका संख्यातवें भागरूप राशिके क्षय हो जाने पर भी निर्मूल नाश नहीं होने से, अनन्त है । अथवा, उपर जो भव्य राशिके क्षय नहीं होनेमें अनन्तरूप हेतु दे आये हैं । उसमें 'छद्मस्थ जीवोंके द्वारा अनन्तकी उपलब्ध नहीं होती है, इस अपेक्षाके विना ही ' यह विशेषण लगा देनेसे अनैकान्तिक दोष नहीं आता है। दूसरे व्ययसहित अनन्तके सर्वथा क्षय मान लेनेपर कालका भी सर्वथा क्षय हो जायगा, क्योंकि, व्ययसाहित होनेके प्रति दोनों समान हैं ।
शंका – यदि ऐसा ही मान लिया जाय तो क्या हानि है ?
समाधान - नहीं, क्योंकि, ऐसा माननेपर कालकी समस्त पर्यायों के क्षय हो जाने से दूसरे द्रव्यों की स्वलक्षणरूप पर्यायोंका भी अभाव हो जायगा और इसलिये समस्त वस्तुओंके अभावकी आपत्ति आ जायगी ।
शंका- मुक्तिको नहीं जानेवाले जीवोंके भव्यपना कैसे बन सकता है ?
समाधान--नहीं, क्योंकि, मुक्ति जानेकी योग्यताकी अपेक्षा उनके भव्य संज्ञा बन जाती है । जितने भी जीव मुक्ति जानेके योग्य होते हैं वे सब नियमले कलंकरहित होते हैं
नागयकाला तुल्ला जओ य संसिद्धो । एक्को अणतभागो भव्वाणमईयकालेणं ॥ एस्सेण तत्तिओ चिय जुत्तों जं तो वि सव्वभव्वाणं । जुत्तो न समुच्छेओ होज मई कहानणं सिद्धं । भव्त्राणमणतत्तणमणंतभागो व किह व मुको सिं । कलादओ व मडिय मह वयणाओ व पडिव || वि. भा. २३०६-२३०९.
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org