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________________ छक्खंडागमे जीवद्वाणं दंसणमोहुदयादो उपज्जइ जं पयत्य सद्दहणं । चल-मलिनमगाढं तं वेदग - सम्मत्तमिह मुणसु ॥ २१५ ॥ दंसणमो हुत्रसमदो उपज्जइ जं पयत्य सद्दहणं । उसम सम्मत्तमिणं पण्ण-मल-पंक-तोय-समं ॥ २१६ ॥ सम्यग्दर्शनस्य सामान्यस्य क्षायिकसम्यग्दर्शनस्य च गुणनिरूपणार्थमाहसम्माइट्ठी खइयसम्माहट्टी असंजदसम्माइडि-पहुडि जाव अजोगकेवलित्ति ॥ १४५ ॥ ३९६ ] किं तत्सम्यक्त्वगतसामान्यमिति चेत्रिष्वपि सम्यग्दशनेषु यः साधारणोऽशस्तत्सामान्यम् । क्षायिकक्षायोपशमिकोपशमिकेषु परस्परतो भिन्नेषु किं सादृश्यमिति चेन्न, 1 [ १, १, १४५. आकारोंसे या वीभत्स अर्थात् निन्दित पदार्थोंके देखनेसे उत्पन्न हुई ग्लानिसे, किं बहुना तीन लोकसे भी वह क्षायिक सम्यग्दर्शन चलायमान नहीं होता है ॥ २१४ ॥ सम्यक्त्वमोहन प्रकृतिके उदयसे पदार्थोंका जो चल, मलिन और अगाढ़रूप श्रद्धान होता है उसको वेदक सम्यग्दर्शन कहते हैं ऐसा हे शिष्य तू समझ ॥ २१५ ॥ दर्शन मोहनीय के उपशमसे कीचड़के नीचे बैठ जानेसे निर्मल जलके समान पदार्थोंका, जो निर्मल श्रद्धान होता है वह उपशमसम्यग्दर्शन है || २१६ ॥ अब सामान्य सम्यग्दर्शन और क्षायिकसम्यग्दर्शनके गुणस्थानों के निरूपण करनेके लिये सूत्र कहते हैं सामान्य से सम्यग्दृष्टि और विशेषकी अपेक्षा क्षायिकसम्यग्दृष्टि जीव असंयतसम्यदृष्टि गुणस्थान से लेकर अयोगिकेवली गुणस्थानतक होते हैं ॥ १४५ ॥ शंका -- सम्यक्त्वमें रहनेवाला वह सामान्य क्या वस्तु है ? समाधान - तीनों ही सम्यग्दर्शनों में जो साधारण धर्म है वह सामान्य शब्दसे यहां पर विवक्षित है । शंका- क्षायिक, क्षायोपशमिक और औपशमिक सम्यग्दर्शनों के परस्पर भिन्न भिन्न १ गो. जी. ६४९. नानात्मीयविशेषेषु चलतीति चलं स्मृतं । लसत्कल्लोलमालामु जलमेकमवस्थितं ॥ स्वकारितेऽर्हच्चैत्यादौ देवोऽयं मेऽन्यकारिते । अन्यस्यायमिति भ्राम्यन् मोहाच्छाद्धोऽपि चेष्टते । तदप्यलब्ध माहात्म्यं यकात् सम्यक्त्वकर्मणः । मलिनं मलसंगेन शुद्धं स्वर्णमिवोद्भवेत् ॥ स्थान एव स्थितं कंप्रमगादमिति कीर्त्यते वृद्धयष्टिरिवात्यक्तस्थाना करतले स्थिता ॥ समेऽप्यनन्तशक्तित्वे सर्वेषामर्हतामयं । देवोऽस्मै प्रभुरेषोऽस्मा इत्यास्था सुदृशामपि ॥ गो. जी. २५. जी. प्र. टी. उधृता. 1 २ गो. जी. ६५०. ३ सम्यक्त्वानुवादेन क्षायिकसम्यक्त्वे असंयतसम्यग्दृष्ट्यादीनि अयोगकेवल्यन्तानि सन्ति । स. सि. १.८, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001395
Book TitleShatkhandagama Pustak 01
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1939
Total Pages560
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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