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________________ १, १, १२३. ] संत- परूवणाणुयोगद्दारे संजममग्गणापरूवणं [ ३६९ अत्राप्यभेदापेक्षया पर्यायस्य पर्यायिव्यपदेशः । सम् सम्यक् सम्यग्दर्शन ज्ञानानुसारेण यताः बहिरङ्गान्तरङ्गास्रवेभ्यो विरताः संयताः । सर्व सावद्ययोगात् विरतोऽस्मीति सकलस।वद्ययोगविरतिः सामायिक शुद्धिसंयमो द्रव्यार्थिकत्वात् । एवंविधैकत्रतो मिथ्यादृष्टिः किन्न स्यादिति चेन्न, आक्षिप्ताशेषविशेषसामान्यार्थिनो नयस्य सम्यग्दृष्टित्वाविरोधात् । आक्षिप्ताशेषरूपमिदं सामान्यमिति कुतोऽवसीयत इति चेत्सर्व सावद्ययोगोपादानात् । नह्येकस्मिन् सर्वशब्दः प्रवर्तते विरोधात् । स्वान्तर्भाविताशेषसंयमविशेषैकयमः शुद्धिसंयत, सुक्ष्मसपराय-शुद्धि-संयत, यथाख्यात- विहार-शुद्धि-संयत ये पांच प्रकारके संयत तथा संयतासंयत और असंयत जीव होते हैं ॥ १२३ ॥ यहां पर भी अभेदकी अपेक्षासे पर्यायका पर्यायीरूपसे कथन किया है । 'सम्' उपसर्ग सम्यक् अर्थका वाची है, इसलिये सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञानपूर्वक ' यताः ' अर्थात् जो बहिरंग और अन्तरंग आश्रवोंसे विरत है उन्हें संयत कहते हैं । 'मैं सर्व प्रकार के सावद्ययोग से विरत हूं ' इसप्रकार द्रव्यार्थिक नयकी अपेक्षा सकल सावद्ययोगके त्यागको सामायिक शुद्धि-संयम कहते हैं । शंका- इसप्रकार एक व्रतका नियमवाला जीव मिथ्यादृष्टि क्यों नहीं हो जायगा ? समाधान — नहीं, क्योंकि, जिसमें संपूर्ण चारित्रके भेदोंका संग्रह होता है । ऐसे सामान्यग्राही द्रव्यार्थिक नयको समीचीन दृष्टि मानने में कोई विरोध नहीं आता है । शंका - यह सामान्य संयम अपने संपूर्ण भेदोंका संग्रह करनेवाला है, यह कैसे जाना जाता है ? समाधान - ' सर्वसावद्ययोग' पदके ग्रहण करनेसे ही, यहां पर अपने संपूर्ण भेदोंका संग्रह कर लिया गया है, यह बात जानी जाती है। यदि यहां पर संयमके किसी एक भेदकी ही मुख्यता होती तो 'सर्व' शब्दका प्रयोग नहीं किया जा सकता था, क्योंकि, ऐसे स्थल पर 'सर्व' शब्द प्रयोग करनेमें विरोध आता है। १ रागद्दोसविरहिओ समो त्ति अयण अयो त्ति गमणं ति । समगमणं ति समाओ स एव सामाइयं नाम ॥ अहवा भवं समाए निश्वतं तेण तम्मयं वावि । जं तप्पओयणं वा तेण व सामाइयं नेयं ॥ अहवा समाई सम्मत्तनाणचरणाई तेसु तेहिं वा । अयणं अओ समाओ स एव सामाइय नाम || अहवा समस्स आओ गुणाण लाभो त्ति जो समाओ सो | अहवा समाणमाओ नेओ सामाइयं नाम || अहवा सामं मित्ती तत्थ अओ (गमणं ) तेण होइ सामाओ अहवा सामस्साओ लाभो सामाइयं णेयं ॥ सम्ममओ वा समओ सामाइयमुभयविद्धिभावाओ | अहवा सम्मस्स आओ लाभों सामाइयं होइ ॥ अहवा निरुत्तविहिणा सामं सम्मं समं च जं तस्स । इकमप्पए पवेसणमेयं सामाइयं नेयं ॥ किं पुण तं सामइयं सव्वसावञ्चजोगविरह ति ॥ वि. भा. ४२२०-४२२७. I Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001395
Book TitleShatkhandagama Pustak 01
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1939
Total Pages560
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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