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________________ ३७.] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं [१, १, १२३. सामायिकशुद्धिसंयम इति यावत् । तस्यैकस्य व्रतस्य छेदेन द्विव्यादिभेदेनोपस्थापन व्रतसमारोपणं छेदोपस्थापनशुद्धिसंयमः । सकलवतानामेकत्वमापाद्य एकयमोपादानाद् द्रव्यार्थिकनयः सामायिकशुद्धिसंयमः । तदेवैकं व्रतं पञ्चधा बहुधा वा विपाट्य धारणात् पर्यायार्थिकनयः छेदोपस्थापनशुद्धिसंयमः । निशितबुद्धिजनानुग्रहार्थ द्रव्यार्थिकनयादेशना, मन्दधियामनुग्रहार्थं पर्यायार्थिकनयादेशना । ततो नानयोः संयमयोरनुष्ठानकृतो विशेषोऽस्तीति द्वितयदेशेनानुगृहीत एक एव संयम इति चेन्नैष दोषः, इष्टत्वात् । अनेनैवाभिप्रायेण सूत्रे पृथक् न शुद्धिसंयतग्रहणं कृतम् ।। परिहारप्रधानः शुद्भिसंयतः परिहारशुद्धिसंयतः। त्रिंशद्वर्षाणि यथेच्छया भोगमनुभूय सामान्यरूपेण विशेषरूपेण वा संयममादाय द्रव्यक्षेत्रकालभावगतपरिमितापरिमितप्रत्याख्यानप्रतिपादकप्रत्याख्यानपूर्वमहार्णवं सम्यगधिगम्य व्यपगतसकलसंशयस्तपो __ इस कथनसे यह सिद्ध हुआ कि जिसने संपूर्ण संयमके भेदोंको अपने अन्तर्गत कर लिया है ऐसे अभेदरूपसे एक यमको धारण करनेवाला जीव सामायिक-शुद्धि-संयत कहलाता है। 'उस एक व्रतका छेद अर्थात् दो, तीन आदिके भेदसे उपस्थापन करनेको अर्थात् व्रतोंके आरोपण करनेको छेदोपस्थापना-शुद्धि-संयम कहते हैं । संपूर्ण व्रतोंको सामान्यकी अपेक्षा एक क यमको ग्रहण करनेवाला होनेसे सामायिक-शद्धि-संयम द्रव्यार्थिकनयरूप है। और उसी एक व्रतको पांच अथवा अनेक प्रकारके भेद करके धारण करनेवाला होनेसे छेदोपस्थापना-शुद्धि-संयम पर्यायार्थिकनयरूप है। यहां पर तीक्ष्णबुद्धि मनुष्यों के अनुग्रहके लिये द्रव्यार्थिक नयका उपदेश दिया गया है और मन्दबुद्धि प्राणियोंका अनुग्रह करनेके लिये पर्यायार्थिक नयका उपदेश दिया गया है। इसलिये इन दोनों संयमों में अनुष्ठानकृत कोई विशेषता नहीं है। शंका- तब तो उपदेशकी अपेक्षा संयमको भले ही दो प्रकारका कह लिया जावे, पर वास्तवमें तो वह एक ही है ? समाधान-यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि, यह कथन हमें इष्ट ही है । और इसी अभि प्रायसे सूत्र में स्वतन्त्ररूपसे (सामायिक पदके साथ) 'शुद्धिसंयत' पदका ग्रहण नहीं किया है। जिसके (हिंसाका) परिहार ही प्रधान है ऐसे शद्धिप्राप्त संयतोंको परिहार-शद्धि-संयत कहते हैं। तीस वर्षतक अपनी इच्छानुसार भोगोंको भोगकर सामान्यरूपसे अर्थात् सामायिक संयमको और विशेषरूपसे अर्थात् छेदोपस्थापना संयमको धारण कर द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावके अनुसार परिमित या अपरिमित प्रत्याख्यानके प्रतिपादन करनेवाले प्रत्याख्यान पूर्वरूपी महार्णवमें अच्छीतरह प्रवेश करके जिसका संपूर्ण संशय दूर हो गया है और जिसने १ छेदेन पूर्वपर्यायनिरोधेन उपस्थापनमारोपण महाव्रतानां यत्र तच्छेदोपस्थापनम् Ixx छेत्तण तु परियागं पोराणं जो ठवित्ति अप्पाणं | धम्मम्मि पंचजामे छेओवठ्ठावणे स खलु । पं. भा. [छेओवट्ठावण. आमि. रा. को.] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001395
Book TitleShatkhandagama Pustak 01
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1939
Total Pages560
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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