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________________ १६८]. छक्खंडागमे जीवाणं [१, १, १२३. वीर्यान्तरायस्थ वीर्यान्तरायजनितशत्यस्तित्वविरोधात् । कथं पुनः सयोग इति चेन्न, प्रथमचतुर्थभाषोत्पत्तिनिमित्तात्मप्रदेशपरिस्पन्दस्य सत्त्वापेक्षया तस्य सयोगत्वाविरोधात् । तत्र मनसोऽभावे तत्कार्यस्य वचसोऽपि न सत्त्वमिति चेन्न, तस्य जानकार्यत्वात् । अक्रमज्ञानात्कथं क्रमवतां वचनानामुत्पत्तिरिति चेन्न, घटविषयाक्रम ज्ञानसमवेतकुम्भकारावटस्य क्रमेणोत्पत्त्युपलम्भात् । मनोयोगाभावे सूत्रेण सह विरोधः स्यादिति चेन्न, मनःकार्यप्रथमचतुर्थवचसोः सत्त्वापेक्षयोपचारेण तत्सत्वोपदेशात् । जीवप्रदेशपरिस्पन्दहेतुनोकर्मजनितशक्त्यस्तित्वापेक्षया वा तत्सत्त्वान्न विरोधः। संयममार्गणाप्रतिपादनार्थमाह - संजमाणुवादेण अस्थि संजदा सामाइय-छेदोवट्ठावण-सुद्धिसंजदा परिहार-सुद्धि-संजदा सुहुम-सांपराइय-सुद्धि-संजदा जहाक्खादविहार-सुद्धि संजदा संजदासजदा असंजदा चेदि ॥ १२३ ॥ शंका-फिर अरिहंत परमेष्ठीको सयोगी कैसे माना जाय ? समाधान नहीं, क्योंकि, प्रथम (सत्य) और चतुर्थ (अनुभय ) भाषाकी उत्पत्तिके निमित्तभूत आत्मप्रदेशोंका परिस्पन्द वहां पर पाया जाता है, इसलिये इस अपेक्षासे अरिहंत परमेष्ठीके सयोगी होने में कोई विरोध नहीं आता है। शंका-अरिहंत परमेष्ठीमें मनका अभाव होने पर मनके कार्यरूप वचनका सद्भाव भी नहीं पाया जा सकता है ? समाधान--नहीं, क्योंकि, वचन ज्ञानके कार्य हैं, मनके नहीं। शंका - अक्रम झानसे क्रमिक वचनोंकी उत्पत्ति कैसे हो सकती है? समाधान-नहीं, क्योंकि, घटविषयक अक्रम ज्ञानसे युक्त कुंभकारद्वारा क्रमसे घटकी उत्पत्ति देखी जाती है। इसलिये अक्रमवर्ती झानसे क्रमिक वचनोंकी उत्पत्ति मान लेने में कोई विरोध नहीं आता है। शंका-सयोगिकेवलीके मनोयोगका अभाव मानने पर 'सच्चमणजोगो असञ्चमोसमणजोगो सण्णिमिच्छाइटिप्पहुडि जाव सजोगिकेवलि त्ति' इस पूर्वोक्त सूत्रके साथ विरोध आ जायगा? समाधान--नहीं, क्योंकि, मनके कार्यरूप प्रथम और चतुर्थ भाषाके सद्भावकी अपेक्षा उपचारसे मनके सद्भाव मान लेनेमें कोई विरोध नहीं आता है। अथवा, जीवप्रदेशोंके परि. स्पन्दके कारणरूप मनोवर्गणारूप नोकर्मसे उत्पन्न हुई शक्तिके अस्तित्वकी अपेक्षा सयोगिकेवलीमें मनका सद्भाव पाया जाता है ऐसा मान लेने में भी कोई विरोध नहीं आता है। अब संयममार्गणाके प्रतिपादन करनेके लिये सूत्र कहते हैंसंयममार्गणाके अनुवादसे सामायिकशुद्धिसंयत, छेदोपस्थापनाशुद्धिसंयत, परिहार. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001395
Book TitleShatkhandagama Pustak 01
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1939
Total Pages560
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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