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________________ १, १, ११५.] संत-परूवणाणुयोगदारे णाणमग्गणापरूवणं [३५३ ज्ञानद्वारेण जीवपदार्थनिरूपणार्थमाह णाणाणुवादेण अस्थि मदि-अण्णाणी सुद-अण्णाणी विभंगणाणी आभिणिवोहियणाणी सुदणाणी ओहिणाणी मणपज्जवणाणी केवलणाणी चेदि ॥ ११५॥ ____ अत्रापि पूर्ववत्पर्यायपर्यायिणोः कथञ्चिदभेदात्पर्यायिग्रहणेऽपि पर्यायस्य ज्ञानस्यैव ग्रहणं भवति । ज्ञानिनां भेदाद् ज्ञानभेदोऽवगम्यत इति वा पर्यायिद्वारेणोपदेशः । ज्ञानानुवादेन कथमज्ञानस्य ज्ञानप्रतिपक्षस्य सम्भव इति चेन्न, मिथ्यात्वसमवेतज्ञानस्यैव ज्ञानकार्याकरणादज्ञानव्यपदेशात् पुत्रस्यैव पुत्रकार्याकरणादपुत्रव्यपदेशवत् । किं तद्ज्ञानकार्यमिति चेत्तत्वार्थे रुचिः प्रत्ययः श्रद्धा चारित्रस्पर्शनं च । अथवा प्रधानपदमाश्रित्याज्ञानानामपि ज्ञानव्यपदेशः आम्रवनमिति यथा । जानातीति ज्ञानं साकारोपयोगः । अथवा जानात्यज्ञासीज्ज्ञास्यत्यनेनेति वा ज्ञानं ज्ञानावरणीयकर्मणः एकदेशप्रक्षयात् समुत्पन्नात्मपरिणामः क्षायिको वा । तदपि ज्ञानं द्विविधम्, प्रत्यक्षं परोक्षमिति । अब ज्ञानमार्गणाके द्वारा जीव पदार्थके निरूपण करनेके लिये सूत्र कहते हैं ज्ञानमार्गणाके अनुवादसे मति-अज्ञानी श्रुताज्ञानी, विभंगशानी, आभिनिबोधिकहानी, श्रुतज्ञानी, अवधिज्ञानी, मनःपर्ययज्ञानी, और केवलज्ञानी जीव होते हैं ॥ ११५॥ __यहां पर भी पहलेकी तरह पर्याय और पर्यायीमें कथंचित् अभेद होनेसे पर्यायीके ग्रहण करने पर भी पर्यायरूप ज्ञानका ही ग्रहण होता है। अथवा, ज्ञानी कितने प्रकारके होते हैं इस बातके समझ लेनेसे ज्ञानके भेदोंका ज्ञान हो जाता है । इसलिये पर्यायीके कथनद्वारा यहां पर उपदेश दिया है। शंका-शान मार्गणाके अनुवादसे ज्ञानके प्रतिपक्षभूत अज्ञानका ज्ञानमार्गणामें कैसे संभव है ? समाधान--नहीं, क्योंकि, मिथ्यात्वसहित ज्ञानको ही ज्ञानका कार्य नहीं करनेसे अज्ञान कहा है। जैसे, पुत्रोचित कार्यको नहीं करनेवाले पुत्रको ही अपुत्र कहा जाता है। शंका-ज्ञानका कार्य क्या है ? समाधान-तत्त्वार्थमें रुचि, निश्चय, श्रद्धा और चारित्रका धारण करना शानका कार्य है। अथवा, प्रधानपदकी अपेक्षा अज्ञानको भी ज्ञान कहा जाता है। जैसे, जिस वनमें आमके वृक्षोंकी बहुलता होती है उसे आम्रवन कहा जाता है। ___ जो जानता है उसे ज्ञान कहते है। अर्थात् साकार उपयोगको ज्ञान कहते हैं । अथवा, जिसके द्वारा यह आत्मा जानता है, जानता था अथवा जानेगा, ऐसे ज्ञानावरण कर्मके एकदेश क्षयसे अथवा संपूर्ण ज्ञानावरण कर्मके क्षयसे उत्पन्न हुए आत्माके परिणामको शान कहते हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001395
Book TitleShatkhandagama Pustak 01
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1939
Total Pages560
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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