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________________ ३५४] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं [१, १, ११५० परोक्षं द्विविधम्, मतिः श्रुतमिति। तत्र पञ्चभिरिन्द्रियैर्मनसा च यदर्थग्रहणं तन्मतिज्ञानम्। तदपि चतुर्विधम्, अवनह ईहा अवायो धारणा चेति । विषयविषयिसन्निपात. समनन्तरमाद्यग्रहणमवग्रहः' । अवग्रहीतस्यार्थस्य विशेषाकाङ्क्षणमीहा । ईहितस्यार्थस्य निश्चयोऽवायः । कालान्तरेऽप्यविस्मरणसंस्कारजनकं ज्ञानं धारणा' । अथवा चतुर्विंशतिविधं मतिज्ञानम् । तद्यथा, चाक्षुषं च चतुर्विधं मतिज्ञानमवग्रहः ईहावायो धारणा चेति । एवं शेषाणामपि इन्द्रियाणां मनसश्च वाच्यम् । अथवा अष्टाविंशतिविधम् । तद्यथा, अवग्रहो द्विविधोऽर्थावग्रहो व्यञ्जनावग्रहश्चेति । कोविग्रहश्चेदप्राप्तार्थग्रहणमर्थावग्रहः । वह नान दो प्रकारका है, प्रत्यक्ष और परोक्ष । परोक्षके भी दो भेद हैं, मतिज्ञान और श्रुतज्ञान। उनमें पांच इन्द्रियों और मनसे जो पदार्थका ग्रहण होता है उसे मतिज्ञान कहते हैं। वह मतिज्ञान चार प्रकारका है, अवग्रह, ईहा, अवाय और धारणा। विषय और विषयोंके संबन्ध होनेके अनन्तर समयमें जो प्रथम ग्रहण होता है उसे अवग्रह कहते हैं। अवग्रहसे ग्रहण किये गये पदार्थके विशेषको जाननेके लिये अभिलाषरूप जो ज्ञान होता है उसे ईहा कहते हैं। ईहाके द्वारा जाने गये पदार्थके निश्चयरूप ज्ञानको अवाय कहते हैं । कालान्तरमें भी विस्मरण न होनेरूप संस्कारके उत्पन्न करनेवाले ज्ञानको धारणा कहते हैं। अथवा, मतिज्ञान चौवीस प्रकारका होता है। इसका स्पष्टीकरण इसप्रकार है, चक्षु इन्द्रियसे उत्पन्न होनेवाला मतिज्ञान चार प्रकारका है, अवग्रह, ईहा, अवाय और धारणा इसीप्रकार शेष चार इन्द्रियोंसे और मनसे उत्पन्न होनेवाला ज्ञान भी अवग्रह, ईहा, अवाय और धारणाके भेदसे चार चार प्रकारका होता है इसप्रकार कथन करना चाहिये । इसप्रकार ये सब मिलकर चौवीस भेद हो जाते हैं । अथवा, मतिज्ञान अट्ठाईस प्रकारका होता है। उसका स्पष्टीकरण इसप्रकार है । अवग्रह दो प्रकारका होता है, अर्थावग्रह और व्यंजनावग्रह । शंका--अर्थावग्रह किसे कहते हैं ? समाधान-अप्राप्त अर्थके ग्रहण करनेको अर्थावग्रह कहते हैं। १ विषयविषयिसन्निपातसमयानन्तरमाद्यग्रहणमवग्रहः । स. सि. १. १५. विषयविषयिसन्निपाते सति दर्शनं भवति तदनन्तरमर्थस्य ग्रहणमवग्रहः । त. रा. वा. १. १५. विषयविषयिसन्निपातानन्तरमाचं ग्रहणमवग्रहः । विषयस्तावद् द्रव्यपर्यायात्मार्थः विषयिणो द्रव्यभावेन्द्रियं अर्थग्रहणं योग्यतालक्षण तदनन्तरभूतं सन्मानं दर्शनं स्वविषयव्यवस्थापन विकल्पमुत्तरं परिणामं प्रतिपद्यतेऽवग्रहः | लघीयन. स्वो. वृ. लि. पृ. २ प्र. पं. १-३ | तत्राव्यक्तं यथास्वमिन्द्रियविषयाणामालोचनावधारणमवग्रहः । तत्त्वार्थ. भा. १. १५. विषयविषयिसंनिपातानन्तरसमुद्भूतसत्तामात्रगोचरदर्शनावातमाद्यमवान्तरसामान्याकाराविशिष्टवस्तुग्रहणमवग्रहः । प्रमाणनयत. २. ७. अक्षार्थयोगे दर्शनानन्तरमर्थग्रहणमवग्रहः । प्रमाणमी. १. १. २७. २ एषां विशेषार्थपरिज्ञानाय विशेषावश्यकभाष्यं १७९, तः ३५०. गाथान्तं यावद् दृष्टव्यम् । उग्गहो एक समयं ईहावाया मुहत्तमंतं तु । कालमसंखं संखं च धारणा होई नायव्या ॥ आ. नि. ४. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001395
Book TitleShatkhandagama Pustak 01
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1939
Total Pages560
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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