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________________ वर्षमें पांच श्रुतकेवली, १८३ वर्षमें ग्यारह दशपूर्वी, २२० वर्षमें पांच एकादशांगधारी और ११८ वर्षमें चार एकांगधारी आचार्य हुए। इस्प्रकार महावीर निर्वाणसे लोहाचार्य (द्वि.) तक ६२ + १०० + १८३ + २२० + ११८ = ६८३ वर्ष व्यतीत हुए और इसके पश्चात् किसी समय धरसेनाचार्य हुए। ___ अब प्रश्न यह है कि लोहाचार्यसे कितने समय पश्चात् धरसेनाचार्य हुए । प्रस्तुत ग्रन्थमें तो इसके संबन्धमें इतना ही कहा गया है कि इसके पश्चात् की आचार्य-परम्परामें धरसेनाचार्य हुए (पृष्ट ६७)। अन्यत्र जहां यह आचार्य-परम्परा पाई जाती है वहां सर्वत्र वह परम्परा लोहाचार्य पर ही समाप्त हो जाती है। इन्द्रनन्दिने अपने श्रुतावतारमें प्रस्तुत ग्रंथोंके निर्माणका वृत्तान्त विस्तारसे दिया है। किंतु लोहार्यके पश्चात् आचार्योंका क्रम स्पष्टतः सूचित नहीं किया । प्रत्युत, जैसा ऊपर बता आये हैं, उन्होंने कहा है कि इन आचार्योंकी गुरु-परंपराका कोई निश्चय नहीं, क्योंकि, उसके कोई प्रमाण नहीं मिलते हैं। उन्होंने लोहार्यके पश्चात् चार और आचार्योंके नाम गिनाये हैं, विनयधर, श्रीदत्त, शिवदत्त, और अर्हद्दत्त । और उन्हें आरातीय तथा अंगों और पूर्वोके एकदेश ज्ञाता कहा है। लोहार्यके पश्चात् चार आरातीय यतियोंका जिसप्रकार इन्द्रनन्दिने एकसाथ उल्लेख किया है उससे जान पड़ता है कि संभवतः वे सब एक ही कालमें हुए थे। इसीसे श्रीयुक्त पं. जुगलकिशोरजी मुख्तारने उन चारोंका एकत्र समय २० वर्ष अनुमान किया है। उनके पश्चात् के अर्हद्बलि आदि आचार्योंका समय मुख्तारजी क्रमशः १० वर्ष अनुमान करते हैं (समन्तभद्र पृ. १६१)। इसके अनुसार धरसेनाचार्यका समय वीरनिर्वाणसे ६८३+२०+१०+१०-७२३ वर्ष पश्चात् आता है। किंतु नन्दिसंघकी प्राकृत पट्टावली इसका समर्थन नहीं करती। यथार्थतः यह पट्टावली अन्य सब परम्पराओं और पट्टावलियोंसे इतनी विलक्षण है और उन विलक्षणताओंका प्रस्तुत आचार्योंके काल-निणर्यसे इतना घनिष्ठ संबन्ध है कि उसका पूरा परिचय यहां देना आवश्यक प्रतीत होता है । और चूंकि यह पट्टावली, जहां तक हमें ज्ञात है, केवल जैनसिद्धान्तभास्कर, भाग १, किरण ४, सन् १९१३ में छपी थी जो अब अप्राप्य है, अतः उसे हम यहां पूरी विना संशोधनका प्रयत्न किये उद्धृत करते हैं---- नन्दि-आम्नायकी पदावली श्रीत्रैलोक्याधिपं नत्वा स्मृत्वा सद्गुरुभारतीम् । वक्ष्ये पट्टावली रम्यां मूलसंघगणाधिपाम् ॥ १ ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001395
Book TitleShatkhandagama Pustak 01
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1939
Total Pages560
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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