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________________ (२३) दूसरे स्थानपर नन्दि नामसे निर्दिष्ट किये गये हैं । यही बात आगे नं. १८ के गंगदेवके विषयमें पाई जाती है। नं ५ और ६ के आचार्योका शिलालेख नं. १०५ में विपरीत क्रमसे उल्लेख किया गया है, अर्थात् वहां अपराजितका नाम पहिले और नंदिमित्र का पश्चात् किया गया है। संभवतः यह छंद-निर्वाहमात्रके लिये है, कोई भिन्न मान्यताका द्योतक नहीं। आगेके अनेक आचायोंके नाम भी शिलालेख नं. १०५ में भिन्न क्रमसे दिये गये हैं जिसका कारण भी छंदरचना प्रतीत होता है और इसी कारण संभवतः धर्मसेनका नाम यहां भिन्न क्रमसे सुधर्म दिया गया है । उसीप्रकार नं. ११ और १२ का उल्लेख श्रुतस्कंधमें विपरीत है, अर्थात् जयका नाम पहले और क्षत्रियका नाम पश्चात् दिया गया है। क्षत्रियके स्थानमें शिलालेख नं. १ में कृत्तिकार्य नाम है जो अनुमानतः प्राकृत पाठ 'क्खत्तियारिय' का भ्रान्त संस्कृत रूप प्रतीत होता है। नंदिसंघकी प्राकृत पट्टावलीमें नं. १७ के बुद्धिलके स्थानपर वुद्धिलिंग व नं. १८ के गंगदेवके स्थानपर केवल 'देव' नाम है । नं. २१ के जयपालके स्थान पर जयधवला जसफल' तथा हरिवंशपुराणमें यशःपाल नाम दिये हैं। नं. २३ के ध्रुवसनके स्थान पर श्रुतावतार व शिलालेख नं. १०५ में द्रुमसेन तथा श्रुतस्कंधौ ‘धुतसेन ' नाम है । नं. २६ के यशोभद्रके स्थान पर श्रुतावतारमें अभयभद्र नाम है। नं. २७ के यशोबाहुके स्थानपर जयधवलामें जहबाहु, श्रुतावतारमें जयबाहु, व नंदि संघ प्राकृत पट्टावलीमें व आदिपुराणमें भद्रबाहु नाम है। संभवतः ये ही नंदिसंघकी संस्कृत पट्टावलीके भद्रबाहु द्वितीय हैं । इन सब नाम-भेदोंका मूलकारण प्राकृत नामों परसे भ्रमवश संस्कृत रूप बनाना प्रतीत होता है । कहीं कहीं लिपिमें भ्रम होनेसे भी पाठ-भेद पड़ जाना संभव है। उक्त आचार्य-परंपराका प्रस्तुत खण्डमें समय नहीं दिया गया है। किंतु धवलाके वेदनाखण्डके आदिमें, जयधवलामें व इन्द्रनन्दिकृत श्रुतावतारमें गौतम - स्वामीसे लगाकर लोहार्य तकका समय मिलता है, जिससे ज्ञात होता है समयका विचार कि महावीर निर्वाणके पश्चात् क्रमशः ६२ वर्षमें तीन केवली, १०० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001395
Book TitleShatkhandagama Pustak 01
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1939
Total Pages560
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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