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________________ १, १, १०६. ] संत-परूवणाणुयोगद्दारे वेदमग्गणापरूवणं [ ३४५ शेषगुणमधिष्ठिताः सर्वेऽपि प्राणिनोऽपगतवेदाः । न द्रव्यवेदस्याभावस्तेन विकाराभावात् । अधिकृतोऽत्र भाववेदस्ततस्तदभावादपगतवेदो नान्यथेति । वेदादेशप्रतिपादनार्थमाह १०५ ॥ रइया चदुसु द्वाणे सुद्धा णत्रुंसयवेदा ॥ नारकेषु शेषवेदाभावः कथमवसीयत इति चेत् ' सुद्धा सयवेदा ' इत्यार्षात् । शेपवेद तत्र किमिति न स्यातामिति चेन्न, अनवरत दुःखेषु तत्सच्वविरोधात् । स्त्रीपुरुषवेदादपि दुःखमेवेति चेन्न, इष्टकापाकाग्निसमानसन्तापान्यूनतया तार्णकारीषाग्निसमानपुरुषस्त्रीवेदयोः सुखरूपत्वात् । तिर्यग्गतौ वेदनिरूपणार्थमाह- तिरिक्खा सुद्धा णवुंसगवेदा एइंदिय-पहुडि जाव चउरिंदिया त्ति ॥ १०६ ॥ नवगुणस्थानके सवेद भागसे आगे शेष गुणस्थानोंको प्राप्त हुए जीव वेदहित होते हैं । परंतु आगे गुणस्थानोंमें द्रव्यवेदका अभाव नहीं होता है, क्योंकि, केवल द्रव्यवेदसे कोई विकार ही उत्पन्न नहीं होता है । यहां पर तो भाववेदका अधिकार है । इसलिये भाव - वेदके अभाव से ही उन जीवोंको वेदरहित जानना चाहिये, द्रव्यवेदके अभाव से नहीं । अब वेदक मार्गणाओं में प्रतिपादन करनेके लिये सूत्र कहते हैं नारकी जीव चारों ही गुणस्थानोंमें शुद्ध (केवल ) नंपुसकवेदी होते हैं ॥ १०५ ॥ शंका - - नारकियोंमें नंपुसकवेदको छोड़कर दूसरे वेदोंका अभाव है, यह कैसे जाना जाता है ? समाधान -' नारकी शुद्ध नपुंसकवेदी होते हैं, इस आर्षवचनसे जाना जाता है। कि वहां अन्य दो वेद नहीं होते हैं । शंका- वहां पर शेष दो वेद क्यों नहीं होते हैं ? समाधान – इसलिये नहीं होते कि निरन्तर दुखी जीवोंमें शेष दो वेदोंके सद्भाव माननेमें विरोध आता है । शंका - स्त्री और पुरुषवेदसे भी तो दुख ही होता है ? समाधान - नहीं, क्योंकि, नपुंसक वेद अवाकी अनके समान संतापसे न्यून नहीं है, अतएव उससे हीन तृण और कण्डेकी अग्निके समान पुरुषवेद और स्त्रीवेद सुखरूप हैं । अब तिर्यचगतिमें वेदोंके निरूपण करनेके लिये सूत्र कहते हैं तिर्यच एकेन्द्रिय जीवोंसे लेकर चतुरिन्द्रियतक शुद्ध नपुंसकवेदी होते हैं ॥ १०६ ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001395
Book TitleShatkhandagama Pustak 01
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1939
Total Pages560
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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