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________________ ३४६ ] छक्खंडागमे जीवद्वाणं [ १, १, १०७. अत्र शेषवेदाभावः कुतोऽवसीयत इति चेत् ' सुद्धा णत्रुंसगवेदा ' इत्यार्षात् । पिपीलिकानामण्डदर्शनान्न ते नपुंसका इति चेन्न, अण्डानां गर्भे एवोत्पत्तिरिति नियमाभावात् । विग्रहगतौ न वेदाभावस्तत्राप्यव्यक्त वेदस्य सच्चात् । शेषतिरश्चां कियन्तो वेदा इति शङ्कितशिष्याशङ्कानिराकरणार्थमाहतिरिक्खा तिवेदा असष्णिपंचिंदिय-पहुडि जाव संजदासंजदा ति ॥ १०७ ॥ त्रयाणां वेदानां क्रमेणैव प्रवृत्तिर्नाक्रमेण पर्यायत्वात् । कषायवनान्तर्मुहूर्तस्थायिनो वेदा आजन्मनः आमरणात्तदुदयस्य सत्त्वात् । सुगममन्यत् । मनुष्यादेशप्रतिपादनार्थमाह मणुस्सा तिवेदा मिच्छाइट्टि पहुडि जाव अणियट्टि त्ति ॥ १०८ ॥ शंका- चतुरिन्द्रियतकके जीवोंमें शेष दो वेदोंका अभाव है, यह कैसे जाना जाय ? समाधान- - 'एकेन्द्रियसे चतुरिन्द्रियतक जीव शुद्ध नपुंसकवेदी होते हैं ' इस आर्षवचनसे जाना जाता है कि इनमें शेष दो वेद नहीं होते हैं । . शंका- चींटियों के अण्डे देखे जाते हैं, इसलिये वे नपुंसकवेदी नहीं हो सकते हैं ? समाधान- - अण्डोंकी उत्पत्ति गर्भ में ही होती है, ऐसा कोई नियम नहीं है । विशेषार्थ - माता पिताके शुक्र और शोणितले गर्भधारणा होती है । इसप्रकार गर्भधारणा चींटियों नहीं पाई जाती है। अतः उनके अण्डे गर्भज नहीं समझना चाहिये । विग्रहगति में भी वेदका अभाव नहीं है, क्योंकि, वहां पर भी अव्यक्तवेद पाया जाता है । शेष तिर्यंचोंके कितने वेद होते हैं, इसप्रकारकी आशंकाले युक्त शिष्यों की शंकाके दूर करनेके लिये सूत्र कहते हैं तिर्यच असंशी पंचेन्द्रियसे लेकर संयतासंयत गुणस्थानतक तीनों वेदोंसे युक्त होते हैं ॥ १०७ ॥ तीनों वेदोंकी प्रवृत्ति क्रमसे ही होती है युगपत् नहीं, क्योंकि, वेद पर्याय है । जैसे, विवक्षित कषाय केवल अन्तर्मुहूर्तपर्यन्त रहती है, वैसे सभी वेद केवल एक अन्तर्मुहूर्त पर्यन्त ही नहीं रहते है, क्योंकि, जन्मसे लेकर मरणतक भी किसी एक वेदका उदय पाया जाता है। शेष कथन सुगम है । मनुष्यगतिमें विशेष प्रतिपादन करने के लिये सूत्र कहते हैं मनुष्य मिथ्यादृष्टि गुणस्थानसे लेकर अनिवृत्तिकरण गुणस्थानतक तीनों वेदवाले होते हैं ॥ १०८ ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001395
Book TitleShatkhandagama Pustak 01
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1939
Total Pages560
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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