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________________ ३४४ ] छक्खंडागमे जीवाणं [१, १, १०४. चेन्माभूत्तत्र द्रव्यवेदः तस्यात्र प्राधान्याभावात् । अथवा नानुपलब्ध्या तदभावः सिद्धयेत्, सकलप्रमेयव्याप्युपलम्भवलेन तत्सिद्धिः। न स छमस्थेष्वस्ति । एकेन्द्रियाणामप्रतिपन्नस्त्रीपुरुषाणां कथं स्त्रीपुरुषविषयाभिलापे घटत इति चेन्न, अप्रतिपन्नस्त्रीवेदेन भूमिगृहान्तधुद्धिमुपगतेन यूना पुरुषेण व्यभिचारात् । सुगममन्यत् । अपगतवेदजीवप्रतिपादनार्थमाहतेण परमवगदवेदा चेदि ॥ १०४ ॥ समाधान-एकेन्द्रियों में द्रव्यवेद मत होओ, क्योंकि, उसकी यहां पर प्रधानता नहीं है । अथवा, द्रव्यवेदकी एकेन्द्रियों में उपलब्धि नहीं होती है, इसलिये उसका अभाव नहीं सिद्ध होता है। किंतु संपूर्ण प्रमेयों में व्याप्त होकर रहनेवाले उपलम्भप्रमाणसे (केवलज्ञानसे) उसकी सिद्धि हो जाती है। परंतु वह उपलम्भ (केवलज्ञान) छमस्थों में नहीं पाया जाता है । विशेषार्थ-- इन्द्रियप्रत्यक्षसे एकेन्द्रियों में वेदकी अनुपलब्धि सच्ची अनुपलब्धि नहीं है, क्योंकि, एकेन्द्रियोंमें यद्यपि इन्द्रियोंसे द्रन्यवेदका ग्रहण नहीं होता है तो भी सकल प्रमेयों में व्याप्त होकर रहनेवाले केवलज्ञानसे उसका ग्रहण होता है ! अतः एकेन्द्रियों में इन्द्रिय प्रमाणके द्वारा द्रव्यवेदका अभाव नहीं किया जा सकता है। शंका--जो स्त्रीभाव और पुरुषभावसे सवर्था अनभिज्ञ हैं ऐसे एकेन्द्रियोंके स्त्री और पुरुषविषयक आभिलाषा कैसे बन सकती है ? समाधान-नहीं, क्योंकि, जो पुरुष स्त्रीवेदसे सर्वथा अज्ञात है और भूगृहके भीतर वृद्धिको प्राप्त हुआ है, ऐसे पुरुषके साथ उक्त कथनका व्यभिचार देखा जाता है।। विशेषार्थ- यदि यह मान लिया जाय कि एकेन्द्रिय जीव स्त्री और पुरुषसंबन्धी भेदसे सर्वथा अपरिचित होते हैं, इसलिये उनके स्त्री और पुरुषसंबन्धी अभिलाषा नहीं उत्पन्न हो सकती है, तो जो पुरुष जन्मसे ही एकान्तमें वृद्धिको प्राप्त हुआ है और जिसने स्त्रीको कभी भी नहीं देखा है उसके भी युवा होने पर स्त्रीविषयक अभिलाषा नहीं उत्पन्न होना चाहिये। परंतु उसके स्त्रीविषयक अभिलाषा देखी जाती है। इससे सिद्ध है कि स्त्री और पुरुषसंबन्धी अभिलाषाका कारण स्त्री और पुरुषविषयक ज्ञान नहीं है। किंतु वेदकर्मके उदयसे वह अभिलाषा उत्पन्न होती है। वह एकेन्द्रियों के भी पाया जाता है, अतएव उनके स्त्री और पुरुषविषयक अभिलाषाके होनेमें कोई दोष नहीं आता है। शेष व्याख्यान सुगम है । अब वेदरहित जीवोंके प्रतिपादन करनेके लिये आगेका सूत्र कहते हैंनववे गुणस्थानके सवेद भागके आगे जीव वेदरहित होते हैं ॥१०४ ॥ १ अपगतवेदेषु अनिवृत्तिबादराद्ययोगकेवल्यन्तानि । स. सि. १. ८.. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001395
Book TitleShatkhandagama Pustak 01
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1939
Total Pages560
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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