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________________ १, १, १०३.] संत-परूवणाणुयोगद्दारे वेदमग्गणापरूवणं [३४३ कस्मिन् सत्त्वविरोधात् । कथं पुनस्तयोस्तत्र सत्त्वमिति चेद्भिन्नजीवद्रव्याधारतया पर्यायेणैकद्रव्याधारतया च । तत्र न नपुंसकवेदस्याभावः तत्र द्वावेव वेदौ भवत इत्यवधारणाभावात् । तत्कुतोऽवसीयत इति चेत् ‘तिरिक्खा ति-वेदा असण्णिपंचिंदियप्पहुडि जाव संजदासजदा त्ति। मणुस्सा ति-वेदा मिच्छाइद्वि-प्पहुडि जाव अणियट्टि त्ति' एतस्मादार्षात् । सुगममन्यत् ।। नपुंसकवेदसत्त्वप्रतिपादनार्थमाहणqसयवेदा एइंदिय-प्पहुडि जाव आणियट्टि ति ॥ १०३ ॥ एकेन्द्रियाणां न द्रव्यवेद उपलभ्यते, तदनुपलब्धौ कथं तस्य तत्र सत्त्वमिति समाधान-- नहीं, क्योंकि, विरुद्ध दो धर्मोका एकसाथ एक जीवमें सद्भाव माननमें विरोध आता है। शंका-तो फिर नववें गुणस्थानतक इन दोनों वेदोंकी एकसाथ सत्ता कैसे बनेगी? समाधान - भिन्न भिन्न जीवोंके आधारपनेकी अपेक्षा, अथवा, पर्यायरूपसे एक जीवद्रव्यके आधारपने की अपेक्षा नववें गुणस्थानतक इन दोनों वेदोंकी सत्ता बन जाती है। अर्थात् एक कालमें भी नाना जीवों में अनेक वेद पाये जा सकते हैं और एक जीवमें भी पर्यायकी अपेक्षा कालभेदसे अनेक वेद पाये जा सकते हैं। नववें गुणस्थानतक नंपसक वेदका अभाव नहीं है, क्योंकि, नववें गुणस्थानतक दो ही वेद होते हैं ऐसे अवधारणका ( सूत्र में ) अभाव है। शंका-यह बात कैसे जानी जाय कि नववे गुणस्थानतक तीनों वेद होते हैं ? समाधान-'असंशी पंचेन्द्रियसे लेकर संयतासंयत गुणस्थानतक तिर्यंच तीनों वेदवाले होते हैं, और, मिथ्यादृष्टि गुणस्थानसे लेकर अनिवृत्तिकरण गुणस्थानतक मनुष्य तीनों वेदोंसे युक्त होते हैं ' इस आगम-वचनसे यह बात जानी जाती है कि नववे गुणस्थानतक तीनों वेद हैं । शेष कथन सुगम है। अब नपुंसकवेदके सत्त्वके प्रतिपादन करनेके लिये सूत्र कहते हैं एकेन्द्रियसे लेकर अनिवृत्तिकरण गुणस्थानतक नपुंसकवेवाले जीव पाये जाते हैं ॥ १०३ ॥ शंका--एकेन्द्रिय जीवोंके द्रव्यवेद नहीं पाया जाता है, इसलिये द्रव्यवेदकी उपलब्धि नहीं होने पर एकेन्द्रिय जीवोंमें नपुंसक वेदका अस्तित्व कैसे बतलाया ? ............. १ वेदानुवादेन त्रिषु वेदेषु मिथ्यादृष्टयाद्यनिवृत्तिबादरान्तानि सन्ति । स. सि. १. ८. थावरकायप्पहुदी संढो सेसा असण्णिआदी य । आणियहिस्स य पढमो भागो त्ति जिणेहि णिद्दिढें ॥ गो. जी. ३८५.. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001395
Book TitleShatkhandagama Pustak 01
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1939
Total Pages560
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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