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________________ छक्खंडागमे जीवद्वाणं [ १, १, ९७. उभयगुणोपलक्षितजीवानां तत्रोत्पत्तेरुभयत्रापि तदस्तित्वं सिद्धम् । अन्यत्सुगमम् । तत्रानुत्पद्यमानगुणस्थानप्रतिपादनार्थमाह सम्मामिच्छाद्वि- असंजदसम्माइट्टि-ट्ठाणे णियमा पज्जत्ता नियमा पजत्तियाओ ॥ ९७ ॥ ३३६ ] भवतु सम्यग्मिथ्यादृष्टस्तत्रानुत्पत्तिस्तस्य तद्गुणेन मरणाभावात्, किंत्वेतन घटते यदसंयतसम्यग्दृष्टिर्मरणवांस्तत्र नोत्पद्यत इति न, जघन्येषु तस्योत्पत्तेरभावात् । नारकेषु तिर्यक्षु च कनिष्ठेषूत्पद्यमानास्तत्र तेभ्योऽधिकेषु किमिति नोत्पद्यन्त इति चेन्न, मिथ्यादृष्टीनां प्राग्बद्धायुष्काणां पश्चादात्तसम्यग्दर्शनानां नारकाद्युत्पत्तिप्रतिबन्धनं प्रति सम्यग्दर्शनस्यासामर्थ्यात् । तद्वद्देवेष्वपि किन्न स्यादिति चेत्सत्यमिष्टत्वात् । तथा च इन दोनों गुणस्थानोंसे युक्त जीवोंकी उपर्युक्त देव और देवियों में भी उत्पत्ति होती है, अतएव उन दोनों गुणस्थानोंमें भी पर्याप्त और अपर्याप्तरूपसे उनका अस्तित्व सिद्ध हो जाता है । शेष कथन सुगम है । उक्त देव और देवियों की अपर्याप्त अवस्था में नहीं होनेवाले गुणस्थानों के प्रतिपादन करनेके लिये आगेका सूत्र कहते हैं सम्यग्मिथ्यादृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानमें पूर्वोक्त देव नियमसे पर्याप्त होते हैं और पूर्वोक्त देवियां नियमसे पर्याप्त होती हैं ॥ ९७ ॥ शंका -- सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीवकी उक्त देव और देवियों में उत्पत्ति मत होओ, यह ठीक है, क्योंकि, सम्यग्मिथ्यादृष्टि गुणस्थानके साथ जीवका मरण ही नहीं होता है । परंतु यह बात नहीं बनती है कि मरनेवाला असंयतसम्यग्दृष्टि जीव उक्त देव और देवियोंमें उत्पन्न नहीं होता है ? समाधान -- नहीं, क्योंकि, सम्यग्दृष्टिकी जघन्य देवोंमें उत्पत्ति नहीं होती है । शंका - जघन्य अवस्थाको प्राप्त नारकियोंमें और तिर्यच में उत्पन्न होनेवाले सम्यग्दष्टि जीव उनसे उत्कृष्ट अवस्थाको प्राप्त भवनवासी देव और देवियोंमें तथा कल्पवासिनी देवियोंमें क्यों नहीं उत्पन्न होते हैं ? - समाधान – नहीं, क्योंकि, जो आयुकर्मका बन्ध करते समय मिथ्यादृष्टि थे और जिन्होंने तदनन्तर सम्यग्दर्शनको ग्रहण किया है ऐसे जीवोंकी नरकादि गतिमें उत्पत्तिके रोक नेकी सामर्थ्य सम्यग्दर्शन में नहीं है । शंका - सम्यग्दृष्टि जीवोंकी जिसप्रकार नरकगति आदिमें उत्पत्ति होती है उसीप्रकार देवोंमें क्यों नहीं होती है ? समाधान- -यह कहना ठीक है, क्योंकि, यह बात इष्ट ही है । ज्योतींषि विमानानि, तन्निवासिनो ज्योतिष्काः । उत्त. २ अ । ज्योतींषि विमानविशेषाः तेषु भवा ज्योतिष्काः । स्था. ५ ठा. १ उ. [ अभि रा. को ब्योतिष्क, ज्यौतिष्क ] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001395
Book TitleShatkhandagama Pustak 01
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1939
Total Pages560
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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