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________________ संत-परूवणाणुयोगद्दारे जोगमग्गणापरूवणं [ ३३७ भवनवास्यादिष्वप्यसंयतसम्यग्दृष्टेरुत्पत्तिरास्कन्देदिति चेन्न, सम्यग्दर्शनस्य बद्धायुषां प्राणिनां तत्तद्गत्यायुः सामान्येनाविरोधिनस्तत्तद्गतिविशेषोत्पत्तिविरोधित्वोपलम्भात् । भवनवासिन्यन्तरज्योतिष्क प्रकीर्णकाभियोग्य किल्विषिक पृथ्वीपटू स्त्रीनपुंसकविकलेन्द्रियलब्ध्यपर्याप्तककर्मभूमिजतिर्यक्षु चोत्पच्या विरोधोऽसंयतसम्यग्दृष्टेः सिद्धयेदिति तत्र ते नोत्पद्यन्ते । सुगममन्यत् । तथा च शेषदेवेषु गुणावस्थाप्रतिपादनार्थं वक्ष्यति - १, १, ९८. ] सोधम्मीसाण-पहुडि जाव उवरिम उवरिम - गेवज्जं ति विमाणवासि - देवेसु मिच्छाइट्टि - सासणसम्माइट्टि असंजदसम्माइट्टि -हाणे सिया पज्जत्ता सिया अपज्जत्ता ॥ ९८ ॥ शंका – यदि ऐसा है तो भवनवासी आदिमें भी असंयतसम्यग्दृष्टि जीवों की उत्पत्ति प्राप्त हो जायगी ? समाधान- नहीं, क्योंकि, जिन्होंने पहले आयुकर्मका बन्ध कर लिया है ऐसे जीवोंके सम्यग्दर्शनका उस गतिसंबन्धी आयसामान्यके साथ विरोध न होते हुए भी उस उस गतिसबन्धी विशेषमें उत्पत्तिके साथ विरोध पाया जाता है। ऐसी अवस्थामें भवनवासी, व्यन्तर, ज्योतिषी, प्रकीर्णक, आभियोग्य और किल्विाधिक देवोंमें, नीचेके छह नरकोंमें, सब प्रकारकी स्त्रियों में, नपुंसक वेदमें, विकलत्रयोंमें, लब्ध्यपर्याप्तक जीवों में और कर्मभूमिज तिर्यचों में असंयतसम्यग्दृष्टिका उत्पत्तिके साथ विरोध सिद्ध हो जाता है । इसलिये इतने स्थानोंमें सम्य जीव उत्पन्न नहीं होता है। शेष कथन सुगम है । शेष देवोंमें गुणस्थानोंकी अवस्थितिके बतलानेके लिये आगेका सूत्र कहते हैं सौधर्म और ऐशान स्वर्गसे लेकर उपरिम ग्रैवेयकके उपरिम भाग पर्यन्त विमानवासी देवोंसंबन्धी मिथ्यादृष्टि सासादनसम्यग्दृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानमें जीव पर्याप्त भी होते हैं और अपर्याप्त भी होते हैं ॥ ९८ ॥ १ लोकपुरुषस्य ग्रीवास्थानीयत्वात् प्रीवाः । ग्रीवासु भवानि ग्रैवेयकाणि विमानानि । तत्साहचर्यात् इन्द्रा अपि ग्रैवेयकाः । त. रा. वा. ४. १९. ग्रीवेव ग्रीवा लोकपुरुषस्य त्रयोदशरज्जुपरिवर्त्तिप्रदेशः तन्निविष्टतयातिभ्राजि - ष्णुतया च तदाभरणभूतादौ ग्रैवेयका देशवासाः, तन्निवासिनो देवा अपि ग्रैवेयकाः । उत्त. ३६. अ. ( अभि. रा. को. गेविजक. ) २ विशेषेणात्मस्थान् सुकृतिनो मानयन्तीति विमानानि, विमानेषु भवा वैमानिकाः । स. सि., त. रा. वा. ४. १६. विविधं मन्यन्ते उपभुज्यन्ते पुण्यवद्भिर्जीवैरिति विमानानि । तेषु भवाः वैमानिकाः । से किं तं वेमाणिया ? माणिया दुविहा पण्णत्ता, तं जहा कप्पोपगा य कप्पाईया य । XX कल्प आचारः, स चेह इन्द्रसामानिकत्रायखिं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001395
Book TitleShatkhandagama Pustak 01
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1939
Total Pages560
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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