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________________ १, १, ८४.] संत-परूवणाणुयोगद्दारे जोगमग्गणापरूवणं [३२५ तिर्यग्गतौ गुणस्थानानां सत्त्वावस्थाप्रतिपादनार्थमाह तिरिक्खा मिच्छाइट्ठि-सासणसम्माइट्ठि-असंजदसम्माइट्टिटाणे सिया पजत्ता, सिया अपजत्ता ॥ ८४॥ भवतु नाम मिथ्यादृष्टिसासादनसम्यग्दृष्टीनां तिर्यक्षु पर्याप्तापर्याप्तद्वयोः सत्त्वं तयोस्तत्रोत्पत्त्यविरोधात् । सम्यग्दृष्टयस्तु पुनर्नोत्पद्यन्ते तिर्यगपर्याप्तपर्यायेण सम्यग्दर्शनस्य विरोधादिति ? न विरोधः, अस्यार्षस्याप्रामाण्यप्रसङ्गात् । क्षायिकसम्यग्दृष्टिः सेविततीर्थकरः क्षपितसप्तप्रकृतिः कथं तिर्यक्षु दुःखभूयस्सूत्पद्यते इति चेन्न, तिरश्चां नारकेभ्यो दुःखाधिक्याभावात् । नारकेष्वपि सम्यग्दृष्टयो नोत्पत्स्यन्त इति चेन्न, तेषां तत्रोत्पत्तिप्रतिपादकार्थेपलम्भात् । किमिति ते तत्रोत्पद्यन्त इति चेन्न, सम्यग्दर्शनोपादानात् प्राङ् मिथ्यादृष्टयवस्थायां वद्धतियङ्नरकायुष्कत्वात् । सम्यग्दर्शनेन तत् ___ अब तिर्यंचगतिमें गुणस्थानोंके सद्भावके प्रतिपादन करनेके लिये आगेका सूत्र कहते हैं तिर्यंच मिथ्याष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानमें पर्याप्त भी होते हैं और अपर्याप्त भी होते हैं ॥ ८४॥ मिथ्यादृष्टि और सासादनसम्यग्दृष्टि जीवोंकी तिर्यंचोंसंबन्धी पर्याप्त और अपर्याप्त अवस्थामें भले ही सत्ता रही आवे, क्योंकि, इन दो गुणस्थानोंकी तिर्यंचसंबन्धी पर्याप्त और अपर्याप्त अवस्थामें उत्पत्ति होनेमें कोई विरोध नहीं आता है। परंतु सम्यग्दृष्टि जीव तो तिर्यचों में उत्पन्न नहीं होते हैं, क्योंकि, तिर्यंचोंकी अपर्याप्त पर्यायके साथ सम्यग्दर्शनका विरोध है ? . समाधान-विरोध नहीं है, फिर भी यदि विरोध माना जावे तो ऊपरका सूत्र अप्रमाण हो जायगा। शंका-जिसने तीर्थकरकी सेवा की है और जिसने मोहनीयकी सात प्रकृतियोंका क्षय कर दिया है ऐसा क्षायिक-सम्यग्दृष्टि जीव दुःखबहुल तिर्यचोंमें कैसे उत्पन्न होता है ? समाधान-नहीं, क्योंकि, तिर्यंचोंके नारकियोंकी अपेक्षा अधिक दुम्ब नहीं पाये जाते हैं। शंका-तो फिर नारकियोंमें भी सम्यग्दृष्टि जीव उत्पन्न नहीं होंगे? समाधान--नहीं, क्योंकि, सम्यग्दृष्टियोंकी नारकियोंमें उत्पत्तिका प्रतिपादन करने. याला आगम-प्रमाण पाया जा शंका-सम्यग्दृष्टि जीव नारकियों में क्यों उत्पन्न होते हैं? समाधान-नहीं, क्योंकि, जिन्होंने सम्यग्दर्शनको ग्रहण करनेके पहले मिथ्याराष्टि १ (णेरइया ) सम्मण अधिगदा सम्मत्तेण चेव णीति । जी. चू. सू. २६७. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001395
Book TitleShatkhandagama Pustak 01
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1939
Total Pages560
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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