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________________ ३२६] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं [१, १, ८५. किमिति न छिद्यते ? इति चेत् किमिति तन्न छिद्यते ? अपि तु न तस्य निर्मूलच्छेदः । तदपि कुतः ? स्वाभाव्यात् ।। तत्र सम्यग्मिथ्यादृष्टयादिस्वरूपनिरूपणार्थमाहसम्मामिच्छाइट्ठि-संजदासंजद-ट्ठाणे णियमा पजत्ता ।। ८५॥ मनुष्याः मिथ्यादृष्टयवस्थायां बद्धतिर्यगायुषः पश्चात्सम्यग्दर्शनेन सहात्ताप्रत्याख्यानाः क्षपितसप्तप्रकृतयस्तिर्यक्षु किन्नोत्पद्यन्ते ? इति चेत् किंचातोऽप्रत्याख्यानगुणस्य तिर्यगपर्याप्तेषु सत्त्वापत्तिः? न, देवगतिव्यतिरिक्तगतित्रयसम्बद्धायुषोपलक्षितानामणुव्रतोपादानबुद्ध्यनुत्पत्तेः । उक्तं च - चत्तरि वि छेताई आउग-बंधे वि होइ सम्मत्तं । अणुवद-महव्वदाई ण लहइ देवायुगं मोत्तुं ॥ १६९ ॥ अवस्थामें तिर्यंचायु और नरकायुका बन्ध कर लिया है उनकी सम्यग्दर्शनके साथ वहां पर उत्पत्ति मानने में कोई आपत्ति नहीं आती है। शंका-सम्यग्दर्शनकी सामर्थ्य से उस आयुका छेद क्यों नहीं हो जाता है ? समाधान--उसका छेद क्यों नहीं होता है ? अवश्य होता है, किंतु उसका समूल नाश नहीं होता है। शंका-समूल नाश क्यों नहीं होता? __ समाधान-आगेके भवकी बांधी हुई आयुकर्मका समूल नाश नहीं होता है इसप्रकारका स्वभाव ही है। अब तिर्यचोंमें सम्यग्मिथ्यादृष्टि आदि गुणस्थानोंके स्वरूपका निरूपण करनेके लिये आगेका सूत्र कहते हैं - तिर्यच सम्यग्मिथ्यादृष्टि और संयतासंयत गुणस्थानमें नियमसे पर्याप्तक होते हैं ॥ ८ ॥ शंका -जिन्होंने मिथ्यादृष्टि अवस्थामें तिर्यंचायुका बन्ध करनेके पश्चात् देशसंय. मको ग्रहण कर लिया है और मोहकी सात प्रकृतियोंका क्षय कर दिया है ऐसे मनुष्य तिर्यंचोंमें क्यों नहीं उत्पन्न होते? यदि होते हैं तो इससे तिर्यंच-अपर्याप्तोंमें देशसंयमके प्राप्त होनेकी आपत्ति आती है ? । समाधान-नहीं, क्योंकि, देवगतिको छोड़कर शेष तीन गतिसंबन्धी आयुबन्धसे युक्त जीवोंके अणुव्रतको ग्रहण करनेकी बुद्धि ही उत्पन्न नहीं होती है । कहा भी है चारों गतिसबन्धी आयुकर्मके बन्ध हो जाने पर भी सम्यग्दर्शन उत्पन्न हो सकता १ गो. जी. ६५३. गो. क. ३३४ । प्रतिघु ' अशुवद-महब्वदो सु य ण अहइ दोषा' इति पाठः। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001395
Book TitleShatkhandagama Pustak 01
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1939
Total Pages560
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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