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(१९) यः पुष्पदन्तेन च भूतबल्याख्येनापि शिष्यद्वितयेन रेजे । फलप्रदानाय जगज्जनानां प्राप्तोऽङ्कराभ्यामिव कल्पभूजः ॥२५॥ अर्हद्वलिस्संघचतुर्विधं स श्रीकोण्डकुन्दान्वयमूलसंघम् ।
कालस्वभावादिह जायमान-द्वेषेतराल्पीकरणाय चक्रे ॥ २६ ॥
यद्यपि यह लेख बहुत पीछे अर्थात् शक सं. १३२० का है, तथापि संभवतः लेखकने किसी आधार पर से ही इन्हें अर्हद्वलिके शिष्य कहा होगा। यदि ऐसा हो तो यह भी संभव है कि ये इन दोनोंके दीक्षा-गुरु हों और धरसेनाचार्यने जिस मुनि-सम्मेलनको पत्र भेजा था वह अर्हद्वलिका युग-प्रतिक्रमणके समय एकत्र किया हुआ समाज ही हो, और वहींसे उन्होंने अपने अत्यन्त कुशाग्रबुद्धि शिष्य पुष्पदन्त और भूतबलिको धरसेनाचार्यके पास भेजा हो । पट्टावलोके अनुसार अर्हद्वलिके अन्तिम समय और पुष्पदन्तके प्रारम्भ समयमें २१ + १९= ४० वर्षका अन्तर पड़ता है जिससे उनका समसामयिक होना असंभव नहीं है । केवल इतना ही है कि इस अवस्थामें, लेख लिखते समय धरसेनाचार्यकी आयु अपेक्षाकृत कम ही मानना पड़ेगी।
प्रस्तुत ग्रन्थमें पुष्पदन्तका सम्पर्क एक और व्यक्तिसे बतलाया गया है । अंकुलेश्वरमें
. चातुर्मास समाप्त करके जब वे निकले तव उन्हें जिनपालित मिल गये और पुष्पदन्त
और उनके साथ वे वनवास देशको चले गये । ( ' जिणवालियं दट्टण पुष्फयंताइरियो जिनपालित वणवासविसयं गदो' पृष्ठ ७१ । ) दट्टण का साधारणतः दृष्टा अर्थात् देखकर अर्थ होता है । पर यहां पर यदि दट्टण का देखकर यही अर्थ ले लिया जाता है तो यह नहीं मालूम होता कि वहां जिन पालित कहांसे आ गये? दट्टणका अर्थ दृष्टुं अर्थात् देखने के लिये भी हो सकता हैं, जिसका तात्पर्य यह होगा कि पुष्पदन्त अंकुलेश्वरसे निकलकर जिनपालितको देखनेके लिये वनवास चले गये । संगतिकी दृष्टिसे यह अर्थ ठीक बैठता है । इन्द्रनन्दिने जिनपालितको पुष्पदन्तका भागिनेय अर्थात् भनेज कहा है । पर इस रिश्तेके कारण वे उन्हें देखनेके लिये गये यह कदाचित् साधुके आचारकी दृष्टिसे ठीक न समझा जाय इसलिये वैसा अर्थ नहीं किया। वनवास देशसे ही वे गिरिनगर गये थे और वहांसे फिर वनवास देशको ही लौट गये । इससे यही प्रान्त पुष्पदन्ताचार्यकी जन्मभूमि ज्ञात होती है । वहां पहुंचकर उन्होंने जिनपालितको दीक्षा दी और
१ विबुध श्रीधरकृत श्रुतावतारके अनुसार पुष्पदन्त और भूतबलिने अंकुलेश्वरमें ही षडंग आगमकी रचना
की। (तन्मुनिद्वयं अंकुलेसुरपुरे गत्वा मत्वा षडंगरचना कुवा शास्त्रेषु लिखाप्य ... ) २ जैसे, रामो तिसमुद्द मेहलं पुहई पालेऊण समत्थो । पउम च. ३१, ४०. संसार-गमण-भीओ इच्छइ
घेतूण पव्यजं । पउम च. ३१, ४८.
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