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________________ छक्खंडागमे जीवहाणं २९६ ] [१, १, ५८. गतिकमोदयेन सह औदारिककर्मोदयस्य विरोधाद्वा । न च तिरश्वां मनुष्याणां चौदारिककाययोग एवेति नियमोऽस्ति तत्र कार्मणकाययोगादीनाम भावापत्तेः । किंतु औदारिककाययोगस्तिर्यङ्मनुष्याणामेव । केषु वैक्रियककाययोगो भवतीत्येतत्प्रतिपादनार्थमुत्तरसूत्रमाह वेउब्वियकायजोगो वेउव्वियमिस्सकायजोगो देवणेरइयाणं ॥ १८॥ तिरश्चां मनुष्याणां च किमिति तदुदयो न भवेत् ? न, तिर्यमनुष्यगतिकर्मोदयेन सह वैक्रियकोदयस्य विरोधात्स्वभावाद्वा । न हि स्वभावाः परपर्यनुयोगाहोः अतिप्रसङ्गात् । तिर्यश्चो मनुष्याश्च वैक्रियकशरीराः श्रूयन्ते तत्कथं घटत इति चेन्न, औदारिकशरीरं द्विविधं विक्रियात्म कमविक्रियात्मकमिति । तत्र यद्विक्रियात्मकं तद्वै । होता है। अथवा, देवगति और नरकगति नामकर्मके उदयके साथ औदारिकशरीर नामकर्मके उदयका विरोध है, इसलिये उनके औदारिकशरीरका उदय नहीं पाया जाता है। फिर भी तिर्यंच और मनुष्योंके औदारिक और औदारिकमिश्रकाययोग ही होता है ऐसा नियम नहीं है, क्योंकि, इस प्रकारके नियमके करने पर तिर्यंच और मनुष्यों में कार्मणकाययोग आदिके अभावकी आपत्ति आ जायगी। इसलिये औदारिक और औदारिकमिश्र तिर्यंच और मनुष्यों के ही होता है, ऐसा नियम जानना चाहिये । वैक्रियक काययोग किन जीवोंमें होता है इस बातके प्रतिपादन करनेके लिये आगेका सूत्र कहते हैं देव और नारकियोंके वैक्रियककाययोग और वैक्रियकमिश्रकाययोग होता है ॥ ५८ ॥ शंका-तिर्यंच और मनुष्योंके इन दोनों योगोंका उद्य क्यों नहीं होता है ? समाधान-नहीं, क्योंकि, तिर्यचगति और मनुष्यगति कर्मोदयके साथ क्रियक नामकर्मके उदयका विरोध आता है, अथवा, तिर्यंच और मनुष्यगतिमें वैक्रियक नामकर्मका उदय नहीं होता है, यह स्वभाव ही है। और स्वभाव दूसरेके प्रश्नोंके योग्य नहीं होते हैं, अन्यथा, अतिप्रसंग दोष आ जायगा । इसलिये तिर्यंच और मनुष्योंके वैक्रियक और वैक्रियकमिश्रकाययोग नहीं होता है, यह सिद्ध हो जाता है। शंका-तिर्यंच और मनुष्य भी वैक्रियकशरीरवाले सुने जाते हैं, इसलिये यह बात कैसे घटित होगी? समाधान- नहीं, क्योंकि, औदारिकशरीर दो प्रकारका है, विक्रियात्मक और अविक्रियात्मक । उनमें जो विक्रियात्मक औदारिक शरीर है, वह मनुष्य और तिर्यंचोंके Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001395
Book TitleShatkhandagama Pustak 01
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1939
Total Pages560
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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