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१, १, ५७. ] संत-परूवणाणुयोगद्दारे जोगमग्गणापरूवणं [ २९५
कर्मैव कार्मणं शरीरम्, अष्टकर्मस्कन्ध इति यावत् । अथवा कर्मणि भवं कार्मणं शरीरं नामकर्मावयवस्य कर्मणो ग्रहणम् । तेन योगः कार्मणकाययोगः । केवलेन कर्मणा जनितवीर्येण सह योगः इति यावत् । उक्तं च -
कम्मेव च कम्म-भवं कम्मइयं तेण जो दु संजोगो ।
कम्मइयकायजोगो एग-विग-तिगेसु समएसु ॥ १६६ ॥ को ह्यौदारिककाययोगो भवतीत्येतत्प्रतिपादनार्थमुत्तरसूत्रमाह
ओरालियकायजोगो ओरालियमिस्सकायजोगो तिरिक्ख-मणुस्साणं ॥ ५७ ॥
देवनारकाणां किमित्यौदारिकशरीरोदयो न भवेत् ? न, स्वाभाव्याद् देवनरक
कर्म ही कार्मणशरीर है, अर्थात् आठ प्रकारके कर्मस्कन्धोंको कार्मणशरीर कहते हैं। अथवा, कर्ममें जो शरीर उत्पन्न होता है उसे कार्मण शरीर कहते हैं। यहां पर नामकर्मके अवयवरूप कार्मणशरीरका ग्रहण करना चाहिये। उस शरीरके निमित्तसे जो योग होता है
कार्मणकाययोग कहते हैं। इसका तात्पर्य यह है कि अन्य औदारिकादि शरीर-वर्गणाओंके विना केवल एक कर्मसे उत्पन्न हुए वीर्यके निमित्तसे आत्मप्रदेशपरिस्पन्दरूप जो प्रयत्न होता है उसे कार्मणकाययोग कहते हैं। कहा भी है
ज्ञानावरणादि आठ प्रकारके कर्मस्कन्धको ही कार्मणशरीर कहते हैं। अथवा, जो कार्मणशरीर नामकर्मके उदयसे उत्पन्न होता है उसे कार्मणशरीर कहते हैं। और उसके द्वारा होनेवाले योगको कार्मणकाययोग कहते हैं । यह योग एक, दो अथवा तीन समयतक होता है ॥ १६६॥
औदारिककाययोग किसके होता है, इस बातके प्रतिपादन करनेके लिये आगेका सूत्र कहते हैं
तिर्यंच और मनुष्योंके औदारिककाययोग और औदारिकमिश्रकाययोग होता है॥ ५७॥ शंका-देव और नारकियोंके औदारिकशरीर नामकर्मका उदय क्यों नहीं होता है ? समाधान-नहीं, क्योंकि, स्वभावसे ही उनके औदारिकशरीर नामकर्मका उदय नहीं
१. गो जी. २४१. स कार्मणकाययोगः एकद्वित्रिसमयविशिष्टविग्रहगतिकालेषु केवालसमुद्धातसंबंधिप्रतरद्वयलोकपूरणे समयत्रये च प्रवर्तते शेषकाले नास्तीति विभागः तु शब्देन सूच्यते । अनेन शेषयोगानामव्याघातावषय अन्तर्मुहर्तकालो व्याघातविषये एकसमयादियथासम्भवांतर्मुहूर्तपर्यंतकालश्च एकजीवं प्रति भणितो भवति । नानाजीवापेक्षया उवसमसुहमेत्याद्यष्टसांतरमार्गणावर्जितशेष निरन्तरमाणानां सर्वकाल इति विशेषो ज्ञातव्यः । जी. प्र. टी.
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