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१, १, ५९.] संत-परूवणाणुयोगद्दारे जोगमग्गणापरूवणं
[ २९७ क्रियकमिति तत्रोक्तं न तदत्र परिगृह्यते विविधगुणर्द्धचभावात् । अत्र विविधगुणर्द्धथात्मकं परिगृह्यते, तच्च देवनारकाणामेव ।
आहारशरीरस्वामिप्रतिपादनार्थमुत्तरसूत्रमाह
आहारकायजोगो आहारमिस्सकायजोगो संजदाणमिड्-ि पत्ताणं ॥ ५९॥
आहारर्द्धिप्राप्तेः किमु संयताः ऋद्धिप्राप्ता उत वैक्रियकर्द्धिप्राप्तास्ते ऋद्धिप्राप्ता इति । किं चातः नाद्यः पक्ष आश्रयणयोग्यः इतरेतराश्रयदोषासंजनात् । कथम् ? यावन्नाहारर्द्धिरुत्पद्यते न तावत्तेषामृद्धिप्राप्तत्वम्, यावन्नर्द्धिप्राप्तत्वं न तावत्तेषामाहारर्द्धिरिति । न द्वितीयविकल्पोऽपि ऋढेरुपर्यभावात् । भावे वा आहारशरीरवतां मन:पर्ययज्ञानमपि जायेत विशेषाभावात् । न चैवमार्षेण सह विरोधादिति नादिपक्षोक्तदोषः
वैक्रियकरूपसे कहा गया है। उसका यहां पर ग्रहण नहीं किया है, क्योंकि, उसमें नाना गुण और ऋद्धियोंका अभाव है। यहां पर नाना गुण और ऋद्धियुक्त वैक्रियकशरीरका ही ग्रहण किया है, और वह देव और नारकियोंके ही होता है।
अब आहारकशरीरके स्वामीके प्रतिपादन करनेके लिये आगेका सूत्र कहते हैं
आहारककाययोग और आहारकमिश्रकाययोग ऋद्धिप्राप्त छटे गुणस्थानवर्ती संयतोंके ही होते हैं ॥ ५९॥
शंका- यहां पर क्या आहारक ऋद्धिकी प्राप्तिसे संयतोंको ऋद्धिप्राप्त समझना चाहिये, या उन्होंने पहले वैक्रियक ऋद्धिको प्राप्त कर लिया है, इसलिये उन्हें ऋद्धिप्राप्त समझना चाहिये ? इन दोनों पक्षोंमेंसे प्रथम पक्ष तो ग्रहण करने योग्य नहीं है, क्योंकि, प्रथम पक्षके ग्रहण करने पर इतरेतराश्रय दोष आता है। वह कैसे आता है, आगे इसीको स्पष्ट करते हैं। जबतक आहारक ऋद्धि उत्पन्न नहीं होती है तबतक उन्हें ऋद्धिप्राप्त नहीं माना जा सकता, और जबतक वे ऋद्धिप्राप्त न हों तबतक उनके आहारक ऋद्धि उत्पन्न नहीं हो सकती है। इसीप्रकार दूसरा विकल्प भी नहीं बनता है, क्योंकि, उनके उस समय दूसरी ऋद्धियोंका अभाव है। इतने पर भी यदि सद्भाव माना जाता है, तो आहारक ऋद्धिवालोंके मनःपर्ययज्ञानकी उत्पत्ति भी माननी चाहिये, क्योंकि दूसरी ऋद्धियोंके समान इसके होनेमें कोई विशेषता नहीं है । परंतु आहारक ऋद्धिवालेके मनःपर्यय ज्ञान माना नहीं जा सकता है, क्योंकि ऐसा मानने पर आगमसे विरोध आता है ? .
समाधान-प्रथम पक्षमें जो इतरेतराश्रय दोष दिया है, वह तो आता नहीं है, क्योंकि,
१मणपज्जवपरिहारो पढमुवसम्मत्त दोषिण आहारा । एदेसु एकपगदे णथि त्ति असेसयं जाणे ॥ गो. जी. ७३०.
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