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________________ २९२] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं [१, १, ५६. वेउब्वियमुत्तत्यं विजाण मिस्सं च अपरिपुण्णं ति । जो तेण संपजोगो घेउब्वियमिस्सजोगो सो ॥ १६३ ।। आहरति आत्मसात्करोति सूक्ष्मानर्थाननेनेति आहारः । तेन आहारकायेन योगः आहारकाययोगः । कथमौदारिकस्कन्धसम्बद्धानां जीवावयवानां अन्यशरीरेण हस्तमात्रेण शङ्खधवलेन शुभसंस्थानेन योग इति चेन्नैष दोषः, अनादिबन्धनबद्धत्वतो मूर्तानां जीवावयवानां मूर्तेण शरीरेण सम्बन्धं प्रति विरोधासिद्धेः । तत एव न पुनः सङ्घटनमपि विरोधमास्कन्देत् । अथ स्याज्जीवस्य शरीरेण सम्बन्धकदायुस्तयोवियोगो मरणम् । न च गलितायुषस्तस्मिन् शरीरे पुनरुत्पत्तिविरोधात् । ततो न तस्यौदारिक. शरीरेण पुनः सङ्घटनमिति । अत्र प्रतिविधीयते, न तावज्जीवशरीरयोर्वियोगो मरणं तयोः संयोगस्योत्पत्तिकहते हैं। और इसके द्वारा होनेवाले योगको वैगर्विककाययोग कहते हैं ॥ १६२ ॥ बैर्षिकका अर्थ पहले कह ही चुके हैं। वहीं शरीर जबतक पूर्ण नहीं होता है तबतक मिश्र कहलाता है। और उसके द्वारा जो संप्रयोग होता है उसे वैगर्विकमिश्रकाययोग कहते हैं ॥ १६३ ॥ जिसके द्वारा आत्मा सूक्ष्म पदार्थों को ग्रहण करता है, अर्थात् आत्मसात् करता है उसे आहारकशरीर कहते हैं। और उस आहारकशरीरसे जो योग होता है उसे आहारककाययोग कहते हैं। शंका-औदारिकस्कन्धोंसे संबन्ध रखनेवाले जीवप्रदेशोंका हस्तप्रमाण, शंखके समान धवल वर्णवाले, और शुभ अर्थात् समचतुरस्र संस्थानसे युक्त अन्य शरीरके साथ कैसे संबन्ध हो सकता है? समाधान-यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि, जीवके प्रदेश अनादिकालीन बन्धनसे बद्ध होनेके कारण मूर्त हैं, अतएव उनका मूर्त आहारकशरीरके साथ संबन्ध होने में कोई विरोध नहीं आता है। और इसीलिये उनका फिरसे औदारिक शरीरके साथ संघटनका होना भी विरोधको प्राप्त नहीं होता है। शंका-जीवका शरीरके साथ संबन्ध करनेवाला आयुकर्म है, और जीव तथा शरीरका परस्परमें वियोग होना मरण है। इसलिये जिसकी आयु नष्ट हो गई है ऐसे जीवकी फिरसे उसी शरीरमें उत्पत्ति नहीं हो सकती है, क्योंकि, ऐसा माननेमें विरोध आता है। अतः जीवका औदारिक शरीरके साथ पुनः संघटन नहीं बन सकता है। अर्थात् एकबार जीवप्रदेशोंका आहारक शरीरके साथ संबन्ध हो जानेके पश्चात् पुनः उन प्रदेशोंका पूर्व औदारिक शरीरके साथ संबन्ध नहीं हो सकता है ? समाधान-नहीं, क्योंकि, आगममें जीव और शरीरके वियोगको मरण नहीं १ गो. जी. २३४. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001395
Book TitleShatkhandagama Pustak 01
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1939
Total Pages560
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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