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________________ संत - पत्रणाणुयोगद्दारे जोगमग्गणापरूवणं १, १, ५६. j ओगाणा असंखेज्जगुणा त्ति ।' उत्तं च पुरु महमुदारुरालं एयट्टो तं वियाण तहि भवं । ओरालियं ति वृत्तं ओरालियकायजोगो सो' ॥ १६० ॥ ओरालियमुत्तत्थं विजाण मिस्सं च अपरिपुण्णं ति । जो तेजोगो ओरालियमिस्सको जोगो' ॥ १६१ ॥ अणिमादिर्विक्रिया, तद्योगात्पुद्गलाश्च विक्रियेति भण्यन्ते । तत्र भवं शरीरं वैक्रियकम् । तदवष्टम्भतः समुत्पन्नपरिस्पन्देन योगः वैक्रियककाययोगः । कार्मणवैक्रियकस्कन्धतः समुत्पन्नवीर्येण योगः वैक्रियकमिश्रकाययोगः । उक्तं चविवि-गुण-इद्धि-जुत्तं वे उव्त्रियमहव विकिरिया चैव । तिस्से भवं च णेयं वेउब्वियकायजोगो सो ॥ १६२ ॥ [ २९१ द्रव्य -वर्गण की अवगाहना इससे असंख्यातगुणी है । कहा भी है पुरु, महत, उदार और उराल, ये शब्द एकार्थवाचक हैं। उदारमें जो होता है उसे औदारिक कहते हैं, और उसके निमित्तसे होनेवाले योगको औदारिककाययोग कहते हैं ॥ १६० ॥ औदारिकका अर्थ ऊपर कह आये हैं। वही शरीर जबतक पूर्ण नहीं होता है तबतक मिश्र कहलाता है, और उसके द्वारा होनेवाले संप्रयोगको औदारिकमिश्रकाययोग कहते हैं ॥१६॥ अणिमा, महिमा आदि ऋद्धियोंको विक्रिया कहते हैं । उन ऋद्धियोंके संपर्क से पुद्गल भी 'विक्रिया' इस नामसे कहे जाते हैं । उसमें जो शरीर उत्पन्न होता है उसे वैक्रियकशरीर कहते हैं । उस शरीर के अवलम्बनसे उत्पन्न हुए परिस्पन्दद्वारा जो प्रयत्न होता है उसे वैक्रिय काययोग कहते है । कार्मण और वैकियक वर्गणाओंके निमित्तसे उत्पन्न हुई शक्तिसे जो परिस्पन्दके लिये प्रयत्न होता है उसे वैक्रियकमिश्रकाययोग कहते हैं। कहा भी है नाना प्रकार के गुण और ऋद्धियोंसे युक्त शरीरको वैमूर्विक अथवा वैक्रियक शरीर Jain Education International १ गो. जी. २३०. सूक्ष्मपृथिव्यप्तेजोवायु साधारणशरीराणां स्थूलत्वाभावात् कथमौदारिकत्वं ? इति चेत्तन्न, ततः सूक्ष्मतरंवैकियकादिशरीरापेक्षया तेषां महत्त्वेन परमागमरूढ्या वा औदारिकत्वसंभवात् । मं. प्र. टी. २ गो. जी. २३१. प्रागुक्तलक्षणमौदारिकशरीरं तदेवान्तर्मुहूर्तपर्यन्तमपूर्ण अपर्याप्तं तावन्मिश्रमित्युच्यते अपयप्तिकाल संबंधिसमय त्रयसंभवि कार्मणकाययोगाकृष्ट कार्मणवर्गणा संयुक्तत्वेन परमागमरूया वा अपर्याप्तं अपर्याप्तशरीरमिश्रमित्यर्थः । जी. प्र. टी. । तत्रैौदारिकादयः शुद्धाः सुबोधाः । औदारिकामिश्रस्तु औदारिक एवापरिपूर्णो मिश्र उच्यते, यथा गुडमिश्रं दधि न गुडतया नापि दधितया व्यपदिश्यते तत्ताभ्यामपरिपूर्णत्वात् । एवमौदारिकं मिश्र कार्मणेन । नौदारिकतया नापि कार्मणतया व्यपदेष्टुं शक्यम् अपरिपूर्णत्वादिति तस्यौदारिकमि श्रव्यपदेशः । एवं वैक्रियकाहारकमिश्रावपीति शतकटीकालेशः । प्रज्ञापनाव्याख्यानांशस्त्वेवम्, औदारिकाया शुद्धास्तत्पर्याप्तकस्य मिश्रास्वपर्यातकस्येति । स्था. सू. पू. १०१. ३. गो. जी. २३२. For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001395
Book TitleShatkhandagama Pustak 01
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1939
Total Pages560
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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