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________________ १, १, ५६.] संत-परूवणाणुयोगद्दारे जोगमग्गणापरूवणं [२९३ प्रसङ्गात् । अस्तु चेन्न, पूर्वायुषामुदयप्राप्तोत्तरभवसम्बन्ध्यायुःकर्मणां तत्परित्यक्तानुपात्तपूर्वोत्तरशरीराणामपि जीवानामुत्पत्त्युपलम्भात् । भवतु तथोत्पत्तिमरणं पुनर्जीवशरीरवियोग एवेति चेदस्तु सर्वात्मना तयोवियोगो मरणं नैकदेशेन आगलादप्युपसंहृतजीवावयवानां मरणानुपलम्भात् जीविताच्छिन्नहस्तेन व्यभिचाराच्च । न पुनरस्यार्थः सर्वावयवैः पूर्वशरीरपरित्यागः समस्ति येनास्य मरणं जायेत । न चैतच्छरीरं गच्छत्पर्वतादिना प्रतिहन्यते' शस्त्रैश्छिद्यतेऽग्निना दह्यते वा सूक्ष्मत्वाद्वैक्रियकशरीरवत् । आहारकार्मणस्कन्धतः समुत्पन्नवीर्येण योगः आहारमिश्रकाययोगः । उक्तं चकहा है । अन्यथा उनके संयोगको उत्पत्ति मानना पड़ेगा। शंका--जीव और शरिका संयोग उत्पत्ति रहा आवे, इसमें क्या हानि है ? समाधान- ऐसा नहीं है, क्योंकि, पूर्वभवमें ग्रहण किये हुए आयुकर्मके उदय होने पर जिन्होंने उत्तर भवसंबन्धी आयुकर्मका बन्ध कर लिया है और भुज्यमान आयुसे संबन्धके छट जाने पर भी जिन्होंने पूर्व अथवा उत्तर इन दोनों शरीरोंमेंसे किसी एक शरीरको प्राप्त नहीं किया है ऐसे जीवोंकी उत्पत्ति पाई जाती है । इसलिये जीव और शरीरके संयोगको उत्पत्ति नहीं कह सकते हैं। शंका- उत्पत्ति इसप्रकारकी भली ही रही आवे, फिर भी मरण तो जीव और शरीरके वियोगको ही मानना पड़ेगा? समाधान-यह कहना ठीक है, तो भी जीव और शरीरका संपूर्णरूपसे वियोग ही मरण हो सकता है। उनका एकदेशरूपसे वियोग मरण नहीं हो सकता, क्योंकि, जिनके कण्ठपर्यन्त जीवप्रदेश संकुचित हो गये हैं ऐसे जीवोंका भी मरण नहीं पाया जाता है। यदि एकदेश वियोगको भी मरण माना जावे, तो जीवित शरीरसे छिन्न होकर जिसका हाथ अलग हो गया है उसके साथ व्यभिचार दोष आ जायगा। इसीप्रकार आहारक शरीरको धारण करना इसका अर्थ संपूर्णरूपसे पूर्व (औदारिक) शरीरका त्याग करना नहीं है, जिससे आहारक शरीरको धारण करनेवालेका मरण माना जावे? विशेषार्थ-छटवें गुणस्थानमें जब साधु आहारक शरीरको उत्पन्न करता है, उस समय उसका औदारिक शरीरसे सर्वथा संबन्ध भी नहीं छट जाता है और भुज्यमान आयुका अन्त भी नहीं होता है, इसलिये ऐसी अवस्थाको मरण नहीं कहते हैं। केवल वहां जीवप्रदेशोंका आहारक शरीरके साथ एकदेश संबन्ध होता है। - यह आहारक शरीर सूक्ष्म होनेके कारण गमन करते समय वैक्रियक शरीरके समान न तो पर्वतोंसे टकराता है, न शस्त्रोंसे छिदता है और न अग्निसे जलता है। आहारक और कार्मणकी वर्गणाओंसे उत्पन्न हुए वीर्यके द्वारा जो योग होता है वह आहारकमिश्रकाययोग है। १ अध्वाधादी अंतीमुहुत्तकालढिवी जहपिणदरे । पञ्जत्तीसंपुणे मरणं पि कदाचि संभव ॥गी.जी. २३८. २ तत्प्राक्कालभाव्यौदारिकशरीरवर्गणामित्वेन तामिः सह वर्तमानो यः संप्रयोगः अपरिपूर्णशक्तियुक्तात्म Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001395
Book TitleShatkhandagama Pustak 01
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1939
Total Pages560
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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