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________________ १, १, ४९.] संत-परूवणाणुयोगद्दारे जोगमग्गणापरूवणं [२८१ सम्भावो सच्चमणो जो जोगो तेण सच्चमणजोगी। तबिवरीदो मोसो जाणुभयं सच्चमोसं ति ॥ १५४ ॥ ताभ्यां सत्यमोषाभ्यां व्यतिरिक्तोऽसत्यमोपमनोयोगः । तहर्युभयसंयोगजोऽस्तु ? न, तस्य तृतीयभङ्गेऽन्तर्भावात् । कोऽपरश्वतुर्थों मनोयोग इति चेदुच्यते । समनस्केषु मनःपूर्विका वचसः प्रवृत्तिः अन्यथानुपलम्भात् । तत्र सत्यवचननिबन्धनमनसा योगः सत्यमनोयोगः। तथा मोषवचननिबन्धनमनसा योगो मोषमनोयोगः । उभयात्मकवचननिवन्धनमनसा योगः सत्यमोषमनोयोगः । त्रिविधवचनव्यतिरिक्तामन्त्रणादिवचननिवन्धनमनसा योगोऽसत्यमोषमनोयोगः। नायमर्थो मुख्यः सकलमनसामव्यापकत्वात् । कः पुनर्निरवद्योऽर्थश्चेद्यथावस्तु प्रवृत्तं मनः सत्यमनः । विपरीतमसत्यमनः । सद्भाव अर्थात् सत्यार्थको विषय करनेवाले मनको सत्यमन कहते हैं और उससे जो योग होता है उसे सत्यमनोयोग कहते हैं। इससे विपरीत योगको मृषामनोयोग कहते हैं। उभयरूप योगको सत्यमृषामनोयोग जानो ॥ १५४ ॥ सत्यमनोयोग और मृषामनोयोगसे व्यतिरिक्त योगको असत्यमृषामनोयोग कहते हैं। शंका-तो असत्यमृषामनोयोग (अनुभय ) उभयसंयोगज रहा आवे ? समाधान-नहीं, क्योंकि, उभयसंयोगजका तीसरे भेदमें अन्तर्भाव हो जाता है। शंका-तो फिर इनसे भिन्न चौथा अनुभय मनोयोग कौनसा है ? समाधान-समनस्क जीवोंमें वचनप्रवृत्ति मनपूर्वक देखी जाती है, क्योंकि, मनके बिना उनमें वचनप्रवृत्ति नहीं पाई जाती है। इसलिये उन चारोंमेंसे सत्यवचननिमित्तक मनके निमित्तसे होनेवाले योगको सत्यमनोयोग कहते हैं। असत्य वचन-निमित्तक मनसे होनेवाले योगको असत्यमनोयोग कहते हैं । सत्य और मृषा इन दोनोंरूप वचननिमित्तक मनसे होनेवाले योगको उभय मनोयोग कहते हैं। उक्त तीनों प्रकारके वचनोंसे भिन्न आमन्त्रण आदि अनुभयरूप वचन-निमित्तक मनसे होनेवाले योगको अनुभयमनोयोग कहते हैं। फिर भी उक्त प्रकारका कथन मुख्यार्थ नहीं है, क्योंकि, इसकी संपूर्ण मनके साथ व्याप्ति नहीं पाई जाती है। अर्थात् उक्त कथन उपचरित है, क्योंकि, वचनकी सत्यादिकतासे मनमें सत्य आदिका उपचार किया गया है। शंका-तो फिर यहां पर निर्दोष अर्थ कौनसा लेना चाहिये ? १गो. जी. २१८. सद्भावः सत्यार्थः तद्विषयं मनः सत्यमनः, सत्यार्थज्ञानजननशक्तिरूपं भावमन इत्यर्थः।xx तद्विपरीतः असत्यार्थविषयज्ञानजनितशक्तिरूपभावमनसा जनितप्रयत्नावशेषः मृषा असत्यमनोयोगः। उभयः सत्यमृषार्थज्ञानजननशक्तिरूपभावमनोजनितप्रयत्नविशेषः उभयमनोयोगः । जी. प्र. टी. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001395
Book TitleShatkhandagama Pustak 01
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1939
Total Pages560
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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