________________
२८० ] छक्खंडागमे जीवठाणं
[१, १, ४९. कारणयोरेककाले समुत्पत्तिविरोधात् । तदस्यास्त्यस्मिन्निति इनि सति सिद्धं मनोयोगी वाग्योगी काययोगीति ।
योगातीतजीवप्रतिपादनार्थमुत्तरसूत्रमाहअजोगी चेदि ॥४८॥ न योगी अयोगी। उक्तं च
___ जेसिं ण सन्ति जोगा सुहासुहा पुण्ण-पाव संजणया ।
ते होंति अजोइजिणा अणोवमाणंत-बल-कलिया ॥ १५३ ॥ .. मनोयोगस्य सामान्यतः एकविधस्य भेदप्रतिपादनार्थमुत्तरसूत्रमाह
मणजोगो चउव्विहो, सचमणजोगो मोसमणजोगो सच्चमोसमणजोगो असचमोसमणजोगो चेदि ॥ ४९ ॥
सत्यमवितथममोघमित्यनान्तरम् । सत्ये मनः सत्यमनः तेन योगः सत्यमनोयोगः । तद्विपरीतो मोपमनोयोगः । तदुभययोगात्सत्यमोपमनोयोगः । उक्तं च
वह मनोयोग जिसके या जिस जीवमें होता है उसे मनोयोगी कहते हैं। यहां पर मनोयोग शब्दसे 'इन् ' प्रत्यय कर देने पर मनोयोगी शब्द बन जाता है । इसीप्रकार वाग्योगी और काययोगी शब्द भी बन जाते हैं।
अब योग रहित जीवोंके प्रतिपादन करनेके लिये आगेका सूत्र कहते हैंअयोगी जीव होते हैं ॥४८॥ जिनके योग नहीं पाया जाता है वे अयोगी हैं। कहा भी है
जिन जीवोंके पुण्य और पापके उत्पादक शुभ और अशुभ योग नहीं पाये जाते हैं वे अनुपम और अनन्त-बल सहित अयोगीजिन कहलाते हैं ॥ १५३ ॥
सामान्यकी अपेक्षा एक प्रकारके मनोयोगके भेदोंके प्रतिपादन करनेके लिये आगेका सूत्र कहते हैं
मनोयोग चार प्रकारका है, सत्यमनोयोग, मृषामनोयोग सत्यमृषामनोयोग, और असत्यमृषामनोयोग ॥४९॥
सत्य, अवितथ और अमोघ, ये एकार्थवाची शब्द हैं । सत्यके विषयमें होनेवाले मनको सत्यमन कहते हैं, और उसके द्वारा जो योग होता है उसे सत्यमनोयोग कहते हैं। इससे विपरीत योगको मृषामनोयोग कहते हैं। जो योग सत्य और मृषा इन दोनों के संयोगसे उत्पन्न होता है उसे सत्यमृषामनोयोग कहते हैं। कहा भी है
१ गो. जी. २४३. अत्र योगाभावे सति अयोगिकवल्यादीनां बलाभावः प्रसज्यते अस्मदादिषु बलस्य योगाश्रितत्वदर्शनात्, इत्याशंक्य इदमुच्यते अनुपमानन्तबलकलिताः । जी. प्र. टी.
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org