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________________ छक्खंडागमे जीवाणं [ १, १, ३५. बीइंदिया दुविहा, पज्जत्ता अपजत्ता । तीइंदिया दुविहा, पजत्ता अपजत्ता । चउरिंदिया दुविहा, पज्जत्ता अपजत्ता । पंचिंदिया दुविहा, सण्णी असण्णी । सण्णी दुविहा, पज्जत्ता अपज्जत्ता । असण्णी दुविहा, पज्जत्ता अपज्जत्ता चेदि ॥ ३५ ॥ द्वन्द्रियादय उक्तार्था इति पुनरुक्तभयात्पुनस्तेषां नेहार्थ उच्यते । अथ स्यादेतस्य एतावन्त्येवेन्द्रियाणीति कथमवगम्यते इति चेन्न, आर्षात्तदवगतेः । किं तदार्पमिति चेदुच्यतेइंदियस्स फुसणं एकं चि य होइ सेस-जीवाणं । होंति कम वड्डियाई जिम्मा-घाणक्खि-सोत्ताई ॥ १४२ ॥ अस्य सूत्रस्यार्थ उच्यते । स्पर्शनमेकमेव एकेन्द्रियस्य भवति, स्पर्शनरसने द्वीन्द्रियस्य, स्पर्शनरसनघ्राणेन्द्रियाणि त्रीन्द्रियाणाम्, तानि सचक्षूंषि चतुरिन्द्रियाणाम्, स्पर्शनरसनघ्राणचक्षुःश्रोत्रेन्द्रियाणि पञ्चेन्द्रियाणामिति । अथवा ' कुमिपिपीलिका २५८ ] कथन करनेके इच्छुक आचार्य आगेका सूत्र कहते हैं द्वीन्द्रिय जीव दो प्रकारके हैं, पर्याप्तक और अपर्याप्तक । त्रीन्द्रिय जीव दो प्रकार के हैं, पर्याप्तक और अपर्याप्तक । चतुरिन्द्रिय जीव दो प्रकारके हैं, पर्याप्तक और अपर्याप्तक । पंचेन्द्रिय जीव दो प्रकारके हैं, संज्ञी और असंक्षी । संज्ञी जीव दो प्रकारके हैं, पर्याप्तक और अपर्याप्तक । असंज्ञी जीव दो प्रकारके हैं, पर्याप्तक और अपर्याप्तक ॥ ३५ ॥ द्वीन्द्रिय आदि जीवोंका स्वरूप पहले कह आये हैं, इसलिये पुनरुक्त दूषण के भय से फिरसे यहां नहीं कहते हैं । शंका- - इस जीवके इतनी ही इन्द्रियां होती हैं, यह कैसे जाना ? समाधान- नहीं, क्योंकि, आर्षसे इस बातको जाना । शंका - वह आगम कौनसा है ? समाधान - एकेन्द्रिय जविके एक स्पर्शन इन्द्रिय ही होती है, और शेष जीवोंके क्रमसे बढ़ती हुई जिह्रा, घाण, अक्षि और श्रोत्र इन्द्रियां होती हैं ॥ १४२ ॥ अब इस सूत्र का अर्थ कहते हैं । एकेन्द्रिय जीवके एक स्पर्शन इन्द्रिय, द्वीन्द्रिय जीवके स्पर्शन और रसना ये दो इन्द्रियां, त्रीन्द्रिय जीवके स्पर्शन, रसना और घ्राण ये तीन इन्द्रियां, चतुरिन्द्रिय जीवके स्पर्शन, रसना, घ्राण और चक्षु ये चार इन्द्रियां और पंचेन्द्रिय जीवके स्पर्शन, रसना, घ्राण, चक्षु और श्रोत्र ये पांच इन्द्रियां होती हैं। अथवा 'क्रमिपिपीलिका १ गो. जी. १६७. २ वनस्पत्यन्तानामेकम् । त. सू. २. २२. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001395
Book TitleShatkhandagama Pustak 01
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1939
Total Pages560
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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