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________________ १, १, ३५. ] संत - परूवणाणुयोगद्दारे इंदियमग्गणापरूवणं [ २५९ भ्रमरमनुष्यादीनामेकैकवृद्धानि ' ' इति अस्मात्तत्त्वार्थसूत्राद्वावसीयते । अस्यार्थ उच्यते । एकैकं वृद्धं येषां तानीमानि एकैकवृद्धानि । 'वनस्पत्यन्तानामेकम्' इत्येतस्मात्सूत्रात्स्पर्शनमित्यनुवर्तते । तत एवमभिसम्बध्यते, स्पर्शनं रसनवृद्धं कृम्यादीनाम्, स्पर्शनरसने घाणवृद्धे पिपीलिकादीनाम्, स्पर्शनरसनघ्राणानि चक्षुवृद्धानि भ्रमरादीनाम्, तानि वृद्धानि मनुष्यादीनामिति । समनस्काः संज्ञिन इति । मनो द्विविधम्, द्रव्यमनो भावमन इति । तत्र पुद्गलविपाकिकर्मोदयापेक्षं द्रव्यमनः । वीर्यान्तरायनोइन्द्रियावरणक्षयोपशमापेक्षात्मनो विशुद्धिर्भावमनः । तत्र भावेन्द्रियाणामिव भावमनस उत्पत्तिकाल एव सच्चादपर्याप्तकालेsपि भावमनसः सच्चमिन्द्रियाणामिव किमिति नोक्तमिति चेन्न, बाह्येन्द्रियैरग्राह्य , भ्रमरमनुष्यादीनामेकैकवृद्धानि इस सूत्र से यह जाना जाता है कि किस जविके कितनी इन्द्रियां होती हैं । अब इस सूत्रका अर्थ कहते हैं एक एक इन्द्रियका बढ़ता हुआ क्रम जिन इन्द्रियोंका पाया जावे, ऐसी एक एक इन्द्रिय के बढ़ते हुए क्रमरूप पांच इन्द्रियां होती हैं । ' वनस्पत्यन्तानामेकम् ' इस सूत्र मेंसे स्पर्शन पदकी अनुवृत्ति होती है, इसलिये ऐसा संबन्ध कर लेना चाहिये कि काम आदि द्वीन्द्रिय जीवोंके स्पर्शनके साथ रसना इन्द्रिय और अधिक होती है । पिपीलिका आदि त्रीन्द्रिय जीवोंके स्पर्शन और रसना के साथ घ्राण इन्द्रिय और अधिक होती है । भ्रमर आदि चतुरिन्द्रिय जीवोंके स्पर्शन, रसना और प्राणके साथ चक्षु इन्द्रिय और अधिक होती है । मनुष्य आदि पंचेन्द्रिय जीवोंके स्पर्शन, रसना, घ्राण और चक्षुके साथ श्रोत्र इन्द्रिय और अधिक होती है । मनसहित जीवक संज्ञी कहते हैं । मन दो प्रकारका है, द्रव्यमन और भावमन । उनमें पुद्गलविपाकी आंगोपांग नामकर्मके उदयकी अपेक्षा रखनेवाला द्रव्यमन है । तथा यिन्तिराय और नो-इन्द्रियावरण कर्मके क्षयोपशमरूप आत्मामें जो विशुद्धि पैदा होती है वह भावमन है | शंका - जीवके नवीन भवको धारण करनेके समय ही भावेन्द्रियों की तरह १ . सू. २. २३. २ पाठोऽयं त. रा. वा. २.२३. वा. २-४ व्याख्यया समानः । ३ स. सि. २. ११] त. रा. वा. २. ११. द्रव्यमनश्च ज्ञानावरणवीर्यान्तरायक्षयोपशमाङ्गोपाङ्ग लाभप्रत्ययाः गुणदोषविचारस्मरणादिप्रणिधानस्याभिमुखस्यात्मनोऽनुग्राहकाः पुद्गला मनस्त्वेन परिणता इति पौगलिकम् । स. सि. ५. ११. । त. रा. वा. ५. ११. ४ स. सिं. २. ११ । त. रा. वा. २. ११. भात्र मनस्तावच्युपयोगलक्षणं पुलावलम्बनत्वात्पौग लिकम् । स. सि. ५. १९ । त. रा. वा. ५. १९. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001395
Book TitleShatkhandagama Pustak 01
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1939
Total Pages560
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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