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संत परूवणाणुयोगदारे इंदियमग्गणापरूवणं
[ २५७ पर्याप्तिप्राणानां नाम्नि विप्रतिपत्तिर्न वस्तुनि इति चेन्न, कार्यकारणयोर्भेदात् , पर्याप्तिष्घायुषोऽसत्त्वान्मनोवागुवासप्राणानामपर्याप्तकालेऽसत्त्वाच तयोर्भेदात् । तत्पर्याप्तयोऽध्यपर्याप्तकाले न सन्तीति तत्र तदसत्वमिति चेन्न, अपर्याप्तरूपेण तत्र तासां सत्त्वात् । किमपर्याप्तरूपमिति चेन्न, पर्याप्तीनामधैनिष्पन्नावस्था अपर्याप्तिः, ततोऽस्ति तेषां भेद इति । अथवा जीवनहेतुत्वं तत्स्थमनपेक्ष्य शक्तिनिष्पत्तिमात्रं पर्याप्तिरुच्यते, जीवनहेतवः पुनः प्राणा इति तयोर्भेदः । ... एकेन्द्रियाणां भेदमभिधाय साम्प्रतं द्वीन्द्रियादीनां भेदमभिधातुकाम उत्तरसूत्रमाह -
हैं, उसीप्रकार जिन अभ्यन्तर इन्द्रियावरण कर्मके क्षयोपशमादिके द्वारा विमें जीवितपनेका व्यवहार हो उनको प्राण कहते हैं ॥ १४१॥
शंका-पर्याप्ति और प्राणके नाममें अर्थात् कहनेमात्रमें विवाद है, वस्तुमें कोई विवाद नहीं है, इसलिये दोनोंका तात्पर्य एक ही मानना चाहिये?
समाधान-न हो, क्योंकि, कार्य और कारणके भेदसे उन दोनोंमें भेद पाया जाता है तथा पर्याप्तियोंमें आयुका सद्भाव नहीं होनेसे और मनोबल, वचनबल, तथा उच्छ्वास इन प्राणोंके अपर्याप्त अवस्थामें नहीं पाये जानेसे पर्याप्ति और प्राणमें भेद समझना चाहिये।
शंका-वे पर्याप्तियां भी अपर्याप्त कालमें नहीं पाई जाती हैं, इसलिये अपर्याप्त कालमें उनका सद्भाव नहीं रहेगा?
समाधान-नहीं, क्योंकि, अपर्याप्त कालमें अपर्याप्तरूपसे उनका सदभाव पाया जाता है।
शंका-अपर्याप्तरूप इसका क्या तात्पर्य है ?
समाधान-पर्याप्तियोंकी अपूर्णताको अपर्याप्ति कहते हैं, इसलिये पर्याप्ति, अपर्याप्ति और प्राण इनमें भेद सिद्ध हो जाता है । अथवा, इन्द्रियादिमें विद्यमान जीवनके कारणपने की अपेक्षा न करके इन्द्रियादिरूप शक्तिकी पूर्णतामात्रको पर्याप्ति कहते हैं और जो जीवनके कारण हैं उन्हें प्राण कहते हैं। इसप्रकार इन दोनोंमें भेद समझना चाहिये।
इसप्रकार एकेन्द्रियोंके भेद प्रभेदोंका कथन करके अब द्वीन्द्रियादिक जीवोंके भेदोंका
१ आहारभाषामनोवर्गणायातपुद्गलस्कन्धानां खलरसभागशरीरावयवरूपद्रव्येन्द्रियरूपोच्छासनिश्वासरूपभाषारूपद्रव्यमनोरूपपरिणमनकारणात्मकशक्तिनिष्पत्तयः पर्याप्तयः, स्वार्थग्रह्णव्यापारकायवाग्व्यापारोच्छासनिश्वासप्रवृत्तिभवधारणरूपजीवद्यवहारकारणात्मशक्तिविशेषाः प्राणा इति भिन्नलक्षणलक्षितत्वात्पर्याप्तिप्राणयोर्मेदप्रसिद्धः ॥ गो. जी., मं. प्र., टी. १३१.
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