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(१२) है, अतएव इनके लिखने पढ़नेमें भ्रान्ति हो सकती है । अतः कथं के स्थानपर कधं और इसको तथा पूर्वोक्त अनुस्वार द्वित्व-विभ्रमको ध्यानमें रखकर संबंधोवा के स्थान पर सव्वत्थोवा कर दिये गये हैं।
यद्यपि शौरसेनीके नियमानुसार कथं आदिमें थ के स्थान पर ध ही रक्खा है, किंतु जहां ध करनेसे किसी अन्य शब्दसे भ्रम होनेकी संभावना हुई वहां थ ही रहने दिया। उदाहरणार्थकिसी किसी प्रतिमें 'गंथो' के स्थान पर — गंधो' भी है किंतु हमने 'गंथो' ही रक्खा है।
(ई) -हस्व और दीर्घ स्वरों में बहुत व्यत्यय पाया जाता है, विशेषतः प्राकृत रूपोंमें । इसका कारण यही जान पड़ता है कि प्राचीन कनाडी लिपिमें हस्व और दीर्घका कोई भेद ही नहीं किया जाता। अतः संशोधनमें -हस्वत्व और दीर्घत्व व्याकरणके नियमानुसार रक्खा गया है।
(उ) प्राचीन कनाडी ग्रंथोंमें बहुधा आदि ल के स्थान पर अ लिखा मिलता है जैसा कि प्रो. उपाध्येने परमात्मप्रकाशकी भूमिकामें (पृ. ८३ पर) कहा है। हमें भी पू. ३२६ की अवतरण गाथा नं. १६९ में ' अहइ' के स्थान पर ' लहइ' करना पड़ा ।
३. प्रतियोंमें न और ण के द्वित्वको छोड़कर शेष पंचमाक्षरोंमें हलंत रूप नहीं पाये जाते । किंतु यहां संशोधित संस्कृतमें पंचमाक्षर यथास्थान रक्खे गये हैं ।
१. प और य में प्राचीन कनाड़ी तथा वर्तमान नागरी लिपिमें बहुधा भ्रम पाया जाता है। यही बात हमारी प्रतियोंमें भी पाई गई । अतः संशोधनमें वे दोनों यथास्थान रक्खे गये हैं।
५. प्रतियोंमें ब और व का भेद नहीं दिखाई देता, सर्वत्र व ही दिखाई देता है । अतः संशोधनमें दोनों अक्षर यथास्थान रक्खे गये हैं। प्राकृतमें व या ब संस्कृतके वर्णानुसार रक्खा गया है।
६. · अरिहंतः । संस्कृतमें अकारांतके रूपसे प्रतियोंमें पाया जाता है। हमने उसके स्थानपर संस्कृत नियमानुसार अरिहंता ही रक्खा है । ( देखो, भाषा व व्याकरणका प्रकरण)
७. ग्रंथमें संस्कृत और प्राकृत दोनों भाषाओंका खूब उपयोग हुआ है, तथा प्रतियोंकी नकल करनेवाले संस्कृतके ही जानकर रहे हैं। अतएव बहुत स्थानोंपर प्राकृतके बीच संस्कतके और संस्कृत के बीच प्राकृतके रूप आ गये हैं । ऐसे स्यानोंपर शुद्ध करके उनके प्राकृत और संकृत रूप ही दिये गये हैं । जैसे, इदि-इति, वणं-वनं, गदि-गति, आदि ।
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