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________________ (११) कुछ बड़ा (0) होता है। फिर अनुस्वार का बिन्दु वर्णसे पश्चात् और द्वित्वका वर्णसे पूर्व रखा जाता है । अतएव लिपिकार द्वित्वको अनुस्वार और अनुस्वारको द्वित्व भी पढ़ सकता है । उदाहरणार्थ, प्रो० पाठकने अपने एक लेखमें * त्रिलोकसारकी कनाड़ी ताड़पत्र प्रति परसे कुछ नागरीमें गाथाएं उद्धृत की हैं जिनमेंसे एक यहां देते हैं सो उ०म०गाहिमुहो चउ॰मुहा सदरि-वास-परमाऊ । चालीस रजओ जिदभूमि पुछइ स-मंति-गणं ॥ इसका शुद्धरूप है सो उम्मग्गाहिमुहो चउम्मुहो सदरि-वास-परमाऊ । चालीस- रज्जओ जिदभूमि पुच्छइ स-मंति-गणं ॥ ऐसे भ्रमकी संभवता ध्यानमें रखकर निम्न प्रकारके पाठ सुधार लिये गये हैं-- (१) अनुस्वारके स्थान पर अगले वर्णका द्वित्व-- अंग गिज्झा-अंगग्गिज्झा ( पृ. ६); लक्खणं खइणो-लक्खणक्खइणो (पृ. १५) संबंध-संबद्ध (पृ. २५, २९२,) वंस-वस्स (पृ. ११० ) आदि । (२) द्विस्वके स्थानपर अनुस्वार-- भग्ग-भंग (पृ. ४९) अक्कुलेसर-अंकुलेसर (पृ. ७१) कक्खा-कंखा (पृ. ७३ ) समिइवइस्सया दंतं-समिइवई सया दंतं (पृ. ७ ) सव्वेयणी-संवेयणी (पृ. १०४) ओरालिय त्ति ओरालियं ति (पृ. २९१) पावग्गालिय-पावं गालिय (पृ. ४८) पडिमव्वा-पडिमं वा (पृ. ५८) इत्यादि । (आ) कनाडीमें द और ध प्रायः एकसे ही लिखे जाते हैं जिससे एक दूसरेमें भ्रम हो सकता है। ६-ध, दरिद-धरिद (पृ. २९) ध-द, विध--ढविद (पृ. २०) हरवणु हरदणु (पृ. २७३ ) इत्यादि । (इ) कनाडीमें थ और ध में अन्तर कंबल वर्णके मध्यमें एक बिंदुके रहने न रहनेका * Bhandarkar commemoration Vol., 1917, P. 221. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001395
Book TitleShatkhandagama Pustak 01
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1939
Total Pages560
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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